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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग सोना बनायेगा? ले जाओ, और इस कागज को अलग करके तब इसे लोहे से छुआना । तुम्हारा मनवांछित कार्य सिद्ध हो जाएगा।"
व्यक्ति ने ऐसा ही किया और फिर मालामाल होकर आनन्द से रहने लगा।
भाइयो! हमारी आत्मा भी पारस पत्थर के समान सिद्धि प्रदान करने वाली है। यह आपको मोक्ष की प्राप्ति भी करा सकती है। किन्तु शर्त यह है कि इस पर रहे हुए कर्मों के आवरणों को हटा दिया जाय । जब तक ये आवरण इस पर चढ़े रहेंगे तब तक हम अपने इच्छित उद्देश्य को कभी सिद्ध नहीं कर पाएंगे। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी है
बहुकम्म लेव लित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लुहा तेसि । -जो आत्मायें बहुत अधिक कर्मों से लिप्त हैं, उन्हें बोधि प्राप्त होना अति दुर्लभ है।
भावार्थ यह है कि जब तक आत्मा कर्मों से अधिकाधिक जकड़ी हुई रहती है तब तक जीव को कर्तव्य-अकर्तव्य का भान नहीं रहता और अंतराय कर्म का तीव्र उदय होने के कारण उसकी आत्मा में रहे हुए ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र-गुणों का आविर्भाव नहीं हो पाता। मिथ्यात्व एवं अज्ञान के कारण उसे जिन वचनों पर प्रतीति . नहीं होती तथा संतों के उपदेश में भी रुचि नहीं रहती।
किन्तु इसके विपरीत ज्यों-ज्यों उस की आत्मा पर से मिथ्यात्व का एवं अज्ञान का आवरण हटता जाता है त्यों-त्यों उसकी आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होती जाती है और साधक संयम की साधना करते-करते अपने मन, वचन एवं काय योग को भी कम करता चला जाता है । कहा भी है
जहा जहा अप्पतरो से जोगो,
___ तहा तहा अप्पतरो से बंधो । निरुद्धजोगिस्स व से ण होति, अछिदपोतस्स व अंबुआणे ।।
__-बृहत्कल्प भाष्य ३९२६ जैसे जैसे मन, वचन, काय के योग अल्पतर होते जाते हैं, वैसे-वैसे बंध भी अल्पतर होता जाता है। योगचक्र का पूर्णतः निरोध होने पर आत्मा में बंध का सर्वथा अभाव होता जाता है। जैसे कि समुद्र में रहे हुए छिद्ररहित जहाज में जलागमन का अभाव होता है।
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