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जन्मदिन कैसे मनाया जाय ?
सुख का खजाना है। अतः इसे कर्मों के आवरणों से मुक्त करके असली स्वरूप में लाना चाहिये। जब तक कर्मों का परदा आत्मा पर रहता है तब तक अपने निज गुणों को विकसित नहीं कर सकती । एक उदाहरण है --
किसी महात्मा के पास एक भक्त आया और बोला - "भगवन् ! मैंने आपकी इतने दिनों तक सेवा की है अतः मुझे अब कोई दुर्लभ वस्तु प्रदान कीजिये।"
महात्माजी ने उत्तर दिया-"वत्स ! तुम्हारी बात सच है। तुमने मेरी अनेक वर्षों तक बहुत मन लगाकर सेवा की है अतः मुझे तुम्हें कुछ न कुछ अवश्य देना चाहिये । जाओ, सामने बने हुए उस आले में से अमुक डिबिया उठा लाओ।"
भक्त अत्यन्त प्रसन्न होकर डिबिया ले आया और उत्सुकतापूर्वक पूछने लगा-"क्या है इस में ?"
“इसमें पारस पत्थर है। इसके द्वारा तुम जीवन भर चाहे जितने लोहे का सोना बना सकोगे ?" महात्माजी ने कहा और वह डिबिया उसे दे दी।
भक्त खुशी के मारे फूला नहीं समाया, उसे अपने गुरुजी से ऐसा उपहार पाने की आशा नहीं थी। अतः पारस-पत्थर जैसी दुर्लभ वस्तु प्राप्त करके मानों वह निहाल हो गया और महात्माजी को नमस्कार करके वहाँ से शीघ्रतापूर्वक चल दिया।
किन्तु कुछ काल पश्चात् जब वह पुनः महात्माजी के पास लौटा, उसका चेहरा उतरा हुआ था। यह देखकर उन्होंने पूछा- "भाई मैंने तुम्हें पारस पत्थर जैसी अमूल वस्तु दी, किन्तु फिर भी तुम उदास हो ? क्या कारण है इसका ?"
भक्त बोला-'गुरुदेव ! आपने मुझे धोखा दिया है। इस पत्थर से तो एक तोला लोहा भी सोना नहीं बना। आप अपनी वस्तु रखिये।" कहकर व्यक्ति ने डिबिया महात्माजी के सामने रख दी।
महात्मा जी ने उसे खोलकर देखा तो पाया कि पारस-पत्थर पर जो महीन कागज लिपटा हुआ था वह ज्यों का त्यों ही उस पर लिपटा हुआ है। अतः उन्होंने कहा- "भले आदमी क्या तुमने इस कागज़ समेत ही इसे लोहे से छुआया था ?"
"जी हाँ !' व्यक्ति ने उत्तर दिया।
'बस, इसीलिये तो इससे लोहा सोना नहीं बन सका। जब तक इस आवरण को इस पारस पत्थर से अलग नहीं करोगे, तब तक कैसे यह लोहे को छूने पर उसे
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