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________________ ६४ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग सौन्दर्य आदि किसी भी बात का गर्व नहीं करना चाहिये । क्योंकि ये सब उसे पूर्व पुण्यों के फलस्वरूप प्राप्त हुए हैं। देखना तो यह है कि वह इस मानव शरीर को पाकर अब क्या करता है ? यह जन्म ऐसा जन्म है कि इसमें वह निकृष्ट करनी करके सातवें नरक तक भी जा सकता है और उत्कृष्ट करनी करके पंचमी गति, मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है । अतः पूर्वोपार्जित कर्मों का फल प्राप्त कर लेने में उसके लिये गर्व की बात ही कौन सी है ? महत्व तो इस बात का है कि शुभ कर्मों के संयोग से इस जन्म में उच्चकुल, उच्चगोत्र, आर्यक्षेत्र, उत्तम धर्म एवं सन्तों का समागम आदि सभी कुछ पाकर वह इनसे क्या लाभ उठाता है ? संसार में अभिमानी व्यक्तियों की कमी नहीं है । जो कुछ पुस्तकें पढ़ गये हैं, वे अपनी विद्या के गर्व में चूर हो रहे हैं और जिन्होंने थोड़ा धन इकट्ठा कर लिया है, वे लक्ष्मी के नशे में मतवाले हो रहे हैं । पर उन्हें यह भान नहीं है कि वे जिस चीज़ का घमण्ड करते हैं वह सदा टिकने वाली नहीं है, अनित्य और असार है । भोगविलासों में डूबा विद्या का जो घमंड आज जो लक्ष्मी का लाल है और नाना प्रकार के हुआ है वह कल दर-दर का भिखारी बन सकता है, अपनी करते हैं, वे कल को पागल होकर अपनी चेतना खो सकते हैं । अपने यौवन और शरीर के सौन्दर्य का जो अभिमान रखते हैं वह कल को किसी असाध्य बीमारी के कारण अंधा, लूला-लंगड़ा या कुरूप हो सकता है और इनसे बच जाय तो वृद्धावस्था के अनिवार्य आक्रमण से अशक्त और सौन्दर्यविहीन हो सकता है । इस प्रकार सांसारिक सुख कोई भी शाश्वत सुख नही है । सभी असार है । केले के पत्तों या प्याज के छिलकों के समान ही सारहीन हैं । आज जो भी अच्छे संयोग हमें मिले हैं वे अगले क्षण ही वियोग में बदल सकते हैं । अधिक क्या कहा जाय ? जिस शरीर को हम सबसे ज्यादा चाहते हैं, पौष्टिक पदार्थ खिलाकर मज़बूत बनाते हैं, मलते हैं, धोते हैं और सजाते हैं, वह भी तो किसी क्षण हमारी आत्मा का साथ छोड़कर अलग हो जाता है । एक क्षण में जीव जन्म लेता है और एक क्षण में ही मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है । अतः जो अज्ञानी संसार के नाशवान पदार्थों से राग रखते हैं, उन्हें दुःखों के अथाह सागर में डूबना पड़ता है । इसलिये अगर व्यक्ति दुःखों से दूर रहकर शाश्वत सुख भोगना चाहे तो उसे लोक-परलोक की असारता और संयोग-वियोग का विचार करके संसार के अनित्य और नाशवान् पदार्थों से मोह, ममता या आसक्ति नहीं रखना चाहिये । यह जगत मिथ्या, नाशवान्, जड़ और दुखःमय है । किन्तु आत्मा चेतन, नित्य और शाश्वत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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