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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भागे इस प्रकार इन्द्र ने उनकी बहुत प्रशंसा एवं सराहना की। किन्तु इन्द्र के द्वारा अपनी तारीफ सुनकर भी नमिराय ऋषि मन में फूले नहीं, अभिमान नहीं आया। कहते हैं—यह मेरी तारीफ नहीं है ज्ञान एवं गुणों की ही तारीफ है। ___इसी प्रकार अभी वक्ताओं ने श्रद्धा के और भावना के वश गुण-वर्णन किया है । पर मेरी आत्मा को तो यही समझना चाहिये कि यह मेरी तारीफ नहीं, केवल गुणों की तारीफ है । जो भी व्यक्ति ऐसा समझता है वह कभी अपनी आत्मा को नीचा नहीं गिराता । किन्तु जो व्यक्ति यह विचार करता है कि-'लोग मेरी प्रशंसा कर रहे हैं।' बस यही आत्मा के पतन का कारण बन जाता है। एक छोटा-सा दृष्टान्त है कीति अर्थात् प्रशंसा, यह संस्कृतसाहित्य में स्त्रीलिंगी है। पुल्लिग या नपुंसकलिंग नहीं। तो कीर्ति को एक कन्या के रूप में माना गया है। अब जब कि कन्या धर में होती है तो उसे किसी को अर्पण तो करना होता है, अतः उसके हाथ में वरमाला दी गई। कीर्ति वरमाला हाथ में लिये हुए अपने लिये उपयुक्त वर की खोज में चली। उसे देखकर अनेक व्यक्ति लालायित हो उठे कि हमारे गले में कीर्ति वरमाला डाले । किन्तु कीति ने अपनी आकांक्षा रखने वाले किसी भी व्यक्ति के गले में माला नहीं डाली और ऐसे संत-महात्माओं के पास पहुँची जो उसकी चाह कभी भी नहीं करते थे। उनके समीप जाकर उसने एक के बाद एक महात्मा के गले में वरमाला डालनी चाही किन्तु उन्होंने स्पष्ट और दृढ़ शब्दों में कह दिया- "हमें तुम्हारी जरूरत ही क्या है ?" इस प्रकार बेचारी कीति कुमारी ही रह गई। क्योंकि जिन्होंने उसे चाहा उन्हें उसने स्वयं पसंद नहीं किया और जिनको उसने चाहा वे उसकी चाह नहीं करते थे। कहने का आशय यही है कि सज्जन पुरुष कीर्ति की चाह नहीं करते और अपनी प्रशंसा सुनकर खुश नहीं होते । अपनी प्रशंसा सुनकर केवल वे ही व्यक्ति प्रसन्न होते हैं जिनमें गुणों का अभाव होता है । एक पाश्चात्य विद्वान सेनेका ने कहा है You can tell the caractor of every man when you see how he receives Praise, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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