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जन्मदिन कैसे मनाया जाय ?
. अर्थात्-जन्म के साथ मरण, यौवन के साथ बुढ़ापा, लक्ष्मी के साथ विनाश निरन्तर लगा हुआ है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु को नश्वर समझना चाहिये ।
- इस प्रकार वैरागी संसार को असार मानता है तथा इससे मुक्त होने का प्रयत्न करने के लिये कटिबद्ध हो जाता है । उस पर वैराग्य का ऐसा रंग चढ़ जाता है कि मृत्यु का भय भी उसे उतार नहीं पाता । किन्तु अगर किसी प्रकार के दुःख, क्रोध या अन्य प्रकार के आवेश में आकर व्यक्ति विरक्त होने का जामा पहन लेता है तो आवेश के समाप्त होने पर वह पुन: अपने आदर्श से गिर जाता है तथा संयम ग्रहण कर लेने के पश्चात् भी अपने साधना-पथ से च्युत हो जाता है।
इसलिए गुरु नाना प्रकार से वैराग्यावस्था को प्राप्त व्यक्ति की परीक्षा लेते हैं और उसमें खरा उतरने पर ही संयम-पथ पर बढ़ाते हैं। ताकि कहीं साधक पथभ्रष्ट न हो जाय
से मइमं परिन्नाय माय हु लालं पच्चासी। -विवेकी साधक कहीं लार यानी थूक चाटने वाला न बन जाय । अर्थात्वह परित्यक्त भोगों की पुनः कामना न करने लगे।
तो ऐसी ही भावना लेकर नमिराय ऋषि की परीक्षा लेने के लिये स्वयं इन्द्र आते हैं और उनसे भांति-भांति के प्रश्नोत्तर करते हैं । पर उनका वैराग्य तो असली था, नकली नहीं । अतः इन्द्र के लुभावने एवं सांसारिक भोगों की ओर ललचाने वाले प्रश्नों का उत्तर उन्होंने पक्के किरमची रंगों में रंगे हुए वस्त्र के सदृश मन के साथ दिया। और इस कारण जब इन्द्र को उनके सच्चे वैराग्य पर पूर्ण प्रतीति हो गई तो उन्होंने राजा की भूरि-भूरि प्रशसा की । और कहा .
"अहो ते निज्जिओ कोहो, अहो माणो पराजिओ । अहो ते निरक्किया माया, अहो लोभो वसीकओ। अहो ते अज्जवं साहु, अहो ते साहु मद्दवं ।
अहो ते उत्तमा खंति, अहो ते मुत्ति उत्तमा । - अर्थात्-'हे राजन् ! आपने क्रोध को जीत लिया, अभिमान को भी परास्त कर दिया। माया का आपके हृदय में कोई स्थान नहीं और लोभ को तो पूर्णतया आपने वश में कर लिया है।'
आगे कहा है-'हे नमि राजऋषि ! आपकी सरलता प्रशंसनीय है, कोमलता भी सराहनीय है। आपकी क्षमा अति उत्तम और श्रेष्ठ है तथा निर्लोभता अद्भुत है।
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