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चोखू करजे मन नो चीर रे !
आगे कहा है
समयसुन्दर नी आ शीखड़ी रे, करजे पुरुषारथ नू वर काम रे । आलस न करिये आवा काममां रे,
पामीश परम सुख नू धाम रे"। धोबीड़ा अंत में कवि ने यही कहा है कि मेरी इस हितशिक्षा पर ध्यान देते हुए अपने पुरुषार्थ से उत्तम करणी करो। धर्म कार्यों में अगर आलस नहीं करोगे तो निश्चय ही तुम्हें अनन्त सुख के धाम मोक्ष की प्राप्ति होगी।
हम प्रायः देखते हैं कि लोग सांसारिक कार्यों में तो तत्पर रहते हैं । खाना, पीना, घूमना और मौज-शौक के कार्यों को करने में विलम्ब नहीं करते, किन्तु धर्मकार्य के लिये आज का काम कल पर, कल का परसों पर और इसी प्रकार महीनों
और वर्षों तक भी टालते जाते हैं । कहते हैं अभी तो हमारी उम्र खाने-पहनने और संसार के सुखों को भोगने की है। धर्मध्यान तो बुढ़ापे में भी कर लेंगे। बीमार होने पर अगर घर वाले कह भी देते है कि महाराज, इनको पचक्खाण करा दो तो नाराज होकर कह बैठते हैं- "अभी हम मर रहे हैं क्या ? ऐसा कहने वाले यह विचार नहीं करते कि बुढ़ापे में और मरते समय ही क्या धर्माराधना की जा सकती है ? और फिर यह कौन कह सकता है कि वृद्धावस्था आएगी ही। जीवन का क्या ठिकाना है, अगला श्वास भी आयेगा या नहीं, इसका पता किसी को नहीं लग सकता।
__अतः प्रत्येक व्यक्ति को जीवन की अस्थिरता पर विचार करते हए इस मानव जन्म रूपी स्वर्णावसंर का लाभ उठाना चाहिये । सद्गति प्राप्त कर लेना या मोक्ष हासिल कर लेना हाथ का कौर नहीं है जो सहज ही उठाकर मुह में डाल लिया जाय । इसके लिये शरीर में शक्ति रहते हुए ही प्रयत्न और पुरुषार्थ करना चाहिये । सांसारिक सुखों के प्रति निरासक्त भाव रखते हुए इन्द्रियों पर तथा मन पर पूर्ण संयम रखने वाला व्यक्ति ही साधना के मार्ग पर बढ़ सकता है। उस मार्ग पर गमन करने के लिये चित्त को अथवा मन को पूर्ण शुद्ध और पवित्र बनाना अनिवार्य है। इसीलिये मैंने मनोगुप्ति का महत्व बताते हुए समयसुन्दर जी महाराज के भजन के द्वारा भी कई श्रेष्ठ बातों की ओर आपका ध्यान दिखाने का प्रयत्न किया है । अगर आप उन्हें ग्रहण करेंगे और जीवन में उतारेंगे तो इस लोक तथा परलोक में सुख हासिल कर सकेंगे।
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