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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
अर्थात् - अपने दोषों और पापों को प्रकट करो, इससे तुम्हें प्रकाश की प्राप्ति
होगी ।
जो व्यक्ति आलोचना और पश्चात्ताप करके अपने समय को निरर्थक गँवाना नहीं चाहता । और अपने दुष्कृत्यों की गुरु के समीप आलोचना नहीं करता उसे अंत में एक उर्दू कवि के कथनानुसार पश्चात्ताप करते हुए कहना पड़ता है
मैं अपने बद अमलों से हूँ इस कदर नादम । कि शरम आती है खुद अपनी शरमसारी पर |
— सहर
यानी - मैं अपने कदाचार से इतना लज्जित हूँ कि मुझे अपनी लज्जा पर भी लज्जा आती है ।
सारांश कहने का यही है कि आलोचना करना जीवन को उच्च और पवित्र बनाने की एक सर्वोत्कृष्ट कला है । शास्त्रों में तो इसको दैनिक कर्तव्य का रूप दिया गया है । श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है
प्रश्न – अलोयणाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ?
उत्तर -- आलोयणाए णं माया- नियाण-मिच्छादंसण सल्लाणं मोक्खमग्गविद्याणं, अनंत संसारबंधणाणं उद्धरणं करेइ, उज्जुभावं जणयइ, उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई, इत्थीवेयनपुंसकवेयं च न बंधइ । पुब्वबद्ध ं च णं निज्जरेइ ।
प्रश्न - हे भगवन् ! आलोचना करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
उत्तर - गुरु के समक्ष आलोचना करने से मोक्षमार्ग में विघ्न डालने वाले और अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले माया, मिथ्यात्व तथा निदान रूप तीन शल्यों को जीव हृदय से निकाल देता है अर्थात् उसके तीनों शल्य नष्ट हो जाते हैं । और इस कारण उसका हृदय सरल बन जाता है । जब सरल बन जाता है तो निष्कपट भी हो जाता है और वह स्त्रीवेद एवं नपुंसक वेद का बंध नहीं करता । अगर इन दोनों वेदों का पूर्व में बंध हो चुका हो, तो उसकी निर्जरा हो जाती है ।
तो बंधुओ, प्रसंग आ जाने के कारण तथा अत्यधिक महत्त्व की बात होने के कारण आलोचना के विषय में मैंने काफी कुछ कह दिया है । हमारे भजन में भी कवि ने कहा है कि आलोचना रूपी साबुन के द्वारा मनरूपी वस्त्र को क्षमा-रूपी शिला पर धोकर शुद्ध कर लो । पर यह ध्यान रखना कि माया रूपी काई या शैवाल कहीं इस वस्त्र पर न लग जाय । अन्यथा वह शुद्ध नहीं हो सकेगा ।
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