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चोखू करजे मन नो चीर रे ! संत के समक्ष आलोचना करनी चाहिये । पर अगर ऐसे संत न मिलें तो ज्ञान-ध्यान में रमण करने वाली साध्वी के समक्ष भी करनी उचित है। और अगर दोनों ही उपलब्ध न हों तो धर्मपरायण एवं ज्ञानी श्रावक के सामने भी आलोचना की जा सकती है। अनेक उदाहरण तो हमें ऐसे भी मिलते हैं, जिनमें संतों ने भी श्रावकों के समक्ष आलोचना की है।
रतलाम के महान शास्त्रज्ञ, श्रावक अमरचंद जी पितलिया के आगे एक संत ने आलोचना की थी। महाराष्ट्र में अहमदनगर वाले श्री किसनलाल जी मूथा बड़े गहरे शास्त्रज्ञ थे । मैंने भी उनसे शास्त्रों का कुछ अध्ययन किया था । तो ऐसे महान् श्रावकों के समक्ष आलोचना की जा सकती है और श्रावक न मिले तो गूढज्ञान रखने वाली श्राविकाओं के सामने भी आलोचना करना उत्तम है । शास्त्रों में तो आलोचना का इतना महत्व बताया है कि अगर साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, इन चारों तीर्थों में कोई भी ऐसा न मिले जिसके सामने आलोचना की जा सकती हो तो मुमुक्षु को एकांत जंगल में जाकर आलोचना करनी चाहिये और वहाँ तक जाने की भी शक्ति न हो तो अपने ठहरने के स्थान पर ही एकान्त जगह में जाकर स्वयं अपनी आत्मा की साक्षी से आलोचना करनी चाहिये कि-- 'परमप्रभो, परमात्मा ! मुझसे अमुकअमुक पाप हुए हैं।' शास्त्र में आलोचना करने की विधि इस प्रकार बताई है
जं पुव्वं तं पुवं, जहाणव्वि जइक्कम सव्वं । आलोइज्ज सुविहिओ, कमकालविधि अभिन्दंतो ॥
-समाधिमरण प्रकीर्णक १०५ यानी श्रेष्ठ आचार वाले पुरुष को क्रम और काल का उल्लंघन न करते हुए, दोषों की क्रमशः आलोचना करनी चाहिये । जो दोष पहले लगा हो उसकी आलोचना पहले और बाद में लगे दोष की बाद में करनी चाहिये ।
- कुछ व्यक्ति कहा करते हैं कि 'बीती ताहि बिसार दे' कहावत के अनुसार जो हो चुका उसके लिये पश्चात्ताप करने से कोई लाभ नहीं उलटे उसके लिये पश्चात्ताप करना अपनी आत्मा को गिराना है। पर ऐसा कहना उचित नहीं है, जो ऐसा कहते हैं उनकी दृष्टि दूषित होती है और यह मानना चाहिये कि उनके समक्ष कोई उच्च लक्ष्य नहीं होता।
एक पश्चिमी विद्वान ने भी कहा है"Confess thy guilts and sins, thus shalt thou get light."
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