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________________ ५६ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग कदम पर मिल जाएँगे लेकिन अपनी निंदा और दूसरों की प्रशंसा करने वाले कहीं भी नहीं मिलते | आशय यही है कि विरले व्यक्ति ही ऐसे होते हैं । कोई भी ऐसा न होता हो, यह तो कहा नहीं जा सकता क्योंकि संसार में अवतारी, महापुरुष एवं महात्यागी संत ऐसे ही हुए हैं, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके मुक्ति हासिल की है । अगर कोई भी ऐसा न हुआ होता तो वे आत्म-कल्याण किस प्रकार करते ? पर हाँ, हजारों में या लाखों में संभवतः कोई कोई ही भव्य पुरुष ऐसा क्योंकि अपने अवगुणों की निंदा और दूसरों के होता है । बड़े त्याग और आत्म-संयम से ही यह वीतरागी होता है । गुणों की प्रशंसा करना बड़ा कठिन संभव हो सकता है । ! समयसुन्दर जी ने इसीलिये कहा है कि तू त्याग, के द्वारा पर-निंदा से बचना और इतने पर भी अगर भूल से ही आलोचना एवं प्रायश्चित रूपी साबुन लगाकर इस शुद्ध कर लेना । भगवान महावीर ने आलोचना का महत्व दर्शाते हुए फरमाया हैनिन्दियं गुरुसगासे । मरोव्व भारवाही || कयपावो वि मणूसो, आलोइय होइ अइरेग लहुओ, ओहरिय नियम एवं प्रत्याख्यान ऐसा हो जाय तो तुरन्त मन रूपी वस्त्र को पुनः - समाधिमरण प्रकीर्णक, १०२ अर्थात् जिस प्रकार भारवाही अपना भार उतार कर अत्यन्त हलकापन महसूस करता है, उसी प्रकार दोषी मनुष्य भी गुरु के समक्ष अपने पापों की आलोचना करके उनके भार से हलका हो जाता है । वस्तुतः सरल एवं शुद्ध भावों से अपने पापों की आलोचना करने वाला व्यक्ति धर्मपरायण एवं जिनवाणी पर विश्वास रखने वाले होते हैं, वे अपने छोटे से छोटे पाप की भी आलोचना करते हैं । साधु-साध्वी तो प्रतिदिन रात्रि में और अनजान में हुए पापों के लिये सुबह और दिनभर में लगे पापों का सायंकाल में प्रायश्चित करते हैं । इसके अलावा अपने गुरुओं के या बड़ों के समक्ष समय-समय पर विगत पापों को प्रगट करते हुए आलोचना कर लेते हैं । आलोचना किसके समक्ष की जाय ? Jain Education International इस विषय में कहा गया है - जो शास्त्रज्ञ हैं, गंभीर और हृदय से गहरे हैं उनके समक्ष आलोचना करनी चाहिये । आलोचना केवल साधु-साध्वियों के लिये ही नहीं, वरन् प्रत्येक व्यक्ति के लिये आत्म-कल्याणकर और आवश्यक है । उसे शास्त्रज्ञ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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