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________________ चोखू करजे मन नो चीर रे ! ५३ इस गाथा में बताया गया है-सत्संग से धर्म-श्रवण करने को मिलता है। धर्म-श्रवण से तत्वज्ञान हासिल होता है और तत्त्वज्ञान से विज्ञान अर्थात् विशिष्ट ज्ञान प्राप्त होता है । विज्ञान से प्रत्याख्यान यानी सांसारिक पदार्थों से विरक्ति की प्रेरणा मिलती है । इस प्रकार प्रत्याख्यान से संयम और संयम से अनाश्रव होता है । अनाश्रव से तप एवं तप से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश हो जाता है। जब पूर्व-बद्ध कर्मों का नाश हो जाता है तो निष्कर्मता, यानी कर्म रहित अवस्था आ जाती है और कर्म रहित अवस्था से सिद्धि अर्थात् मुक्ति प्राप्त होती है। यह सब तभी प्राप्त होता है जब कि प्रारम्भ में सत्संग किया जाय । अगर मूल में ही बीज न डाला जाय तो इच्छित फल की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार जब तक संतों का समागम न किया जाय तब तक न जिन-वचनों का श्रवण ही करने को मिलता है और न ही सम्यक् बोध हासिल होता है। फिर आत्म-मुक्ति का सवाल ही कैसे उठ सकता है। संतों का समागम एक का अंक है जिसके होने के पश्चात् ही क्रमशः बिंदियाँ लगाने पर संख्या बढ़ती है। अगर एक न लिखा जाय तो न बिंदियां लगाई जाती हैं और लगाने पर उनका कोई मूल्य नहीं आंका जा सकता। कहने का आशय यही है कि अगर व्यक्ति संत-मुनिराजों की संगति करता है तो धीरे-धीरे अपनी आत्मा को मुक्तात्मा बना सकता है, और अगर दुर्भाग्य से वह दुर्जनों की संगति में पड़ जाता है तो नवीन गुण ग्रहण करने के बजाय पूर्व में रहे हुए सद्गुणों का नाश कर लेता है, यानी ब्याज तो कमा नहीं पाता उलटे मूल की पूजी ही खोकर आत्मा को पतित बना लेता है । जैसा कि कहा गया है सुजणो वि होइ लहुओ, दुज्जणसंमेलणाए दोसेण । माला वि मोल्लगरुया, होदि लहू मडयसंसिछा ।। -भगवती आराधना ३४५ -दुर्जन की संगति करने से सज्जन का महत्व भी गिर जाता है, जैसे कि मूल्यवान माला मुर्दे पर डाल देने से निकम्मी हो जाती है। तो बंधुओ ! इसीलिये समयसुन्दर मुनिजी ने अपने भजन के द्वारा जीव को बोध दिया है कि जिन-शासन रूपी सरोवर में जो हंस-रूपी मुनि क्रीड़ा कर रहे हैं, उनका सत्संग करके तू भी उस सरोवर के निर्मल जल से अपने मन-रूपी वस्त्र का मैल धो डाल। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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