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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग जाएगा पर आपको अमुक राज्य के राजा के यहाँ जाना पड़ेगा। उनका राजकुमार आपको सही उत्तर देगा।" नारद जी बड़े चक्कर में पड़े पर सोचा- एक बार और सही, अगर इस बार भी मेरी जिज्ञासा का समाधान न हुआ तो फिर कभी विष्णु जी की ओर मुख करूँगा ही नहीं । यह सोचकर वे सीधे विष्णु के बताए हुए राज्य की ओर चल पड़े। उन्हें देर क्या लगती थी ? तीर की तरह सीधे राजमहल में पहुंच गए। वहाँ के राजकुमार से उन्होंने अपना प्रश्न पूछा । राजकुमार बोला-'सत्संगति के लाभ के बारे में तो जब विष्णु जी नहीं बता सके तो मैं कैसे बता सकता हूँ कि संत-दर्शन से क्या लाभ होता है ?" नारद जी ने कहा-~~"अरे यही बता दो भाई ! भागते भूत की लंगोटी ही भली।" तब राजकुमार ने कहा- "देखिये ! आप नरक में आए तो आपके दर्शन करते ही मेरा नरक का सारा आयुष्य टूट गया, उसके बाद विंध्याचल पर्वत पर मैंने तोते के रूप में पक्षी की योनि प्राप्त की थी, पर वहाँ भी आपके दर्शन करते ही वह समाप्त हो गई। उसके बाद मैंने तिथंच योनि में बछड़े के रूप में जन्म लिया । पर मेरे सौभाग्य से वहाँ भी आपके दर्शन हुए और मैं तिर्यंच योनि से मुक्ति प्राप्त कर मनुष्य-भव में राजकुमार बना हूँ। यह संत-दर्शन से ही हुआ है। जब संत के दर्शन से भी इतना लाभ होता है तो फिर संतों की संगति करने से तो न जाने कितना महान फल मिलता होगा।" __"वाह ! अच्छी महिमा बताईं संत-दर्शन की।" राजकुमार की बात पर इस प्रकार भुनभुनाते हुए नारद वहां से चल दिये। बंधुओ ! यह एक रूपक है किन्तु यथार्थ में भी हम देखते हैं कि अगर हम किसी सज्जन अथवा संत पुरुष के समीप पहुँचते हैं तो उसकी सौम्यता, स्नेहसिक्त दृष्टि एवं मधुर वाणी सुनकर हमारा हृदय शांति से भर जाता है तथा चित्त प्रफुल्लित हो उठता है । और अगर हम उनके उपदेशों को, उनके दिये हुए बोध को जीवन में भी उतार लेते हैं तो फिर कहना ही क्या है, निश्चय ही हमारी आत्मा निर्मल बनती हुई ऊँचाई की ओर बढ़ती है । भगवती सूत्र में कहा गया है सवणे नाणे विनाणे, पच्चक्खाणे य संजमे । अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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