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________________ चोखू करजे मन नो चीर रे ! ४६ तत्व की जानकारी कर लेते हैं। कहा भी है-'मननात् मुनिः ।' जो मनन करते हैं वही सच्चे मुनि हैं। आगे कहा है-हंसरूपी मुनि जप और तप रूप निर्मल जल का पान कर रहे हैं । हम अपने शरीर की तृषा मिटाने के लिये जल का प्रयोग करते हैं। मुनि भी करते हैं, किन्तु शरीर की तृषा मिटाने के साथ-साथ वे आत्मा की तृषा शांत करने का भी प्रयत्न करते हैं और उसके लिये जप-तप रूपी निर्मल जल का पान करते हैं। वह जप-तप भी कैसा ? जिसके बदले में कुछ भी प्राप्ति की कामना नहीं होती । सांसारिक वैभव तो वे नहीं ही चाहते पर देवपद और इन्द्रपद की प्राप्ति की भी इच्छा नहीं रखते । दशवकालिक सूत्र के नवमें अध्याय में तपस्या के बारे में कहा गया है कि तप आत्म-कल्याण के लिये करो । धन, संतति, स्वर्ग या इन्द्रपद भी प्राप्त करने की आकांक्षा मत रखो । ये सब सांसारिक बंधन हैं। इन्द्र बन जाएंगे, तब भी मरना पड़ेगा । दूसरे, स्वर्ग में रहकर तो आत्मकल्याण के लिये कुछ भी नहीं कर सकोगे। ___ तामली नाम के एक तापस थे। वे घोर तपस्वी थे। उनके जीवनकाल में नीचे के एक लोक के इन्द्र का आयुष्य पूरा हो गया और वहाँ के देवताओं ने अपने ज्ञान से देखा को पाया कि ताम्रलिप्ति नगर के तामली नामक तापस अपने यहाँ इन्द्र बनने की योग्यता रखते हैं। वे सब मिलकर तामली तापस के पास गए और बोले-'आप हमारे इन्द्र बनने की सामर्थ्य रखते हैं अतः कृपा करके हमारी प्रार्थना स्वीकार करें। आपको अधिक कुछ भी नहीं करना है, केवल इतना ही कहना है कि मेरी करनी का फल हो तो मुझे इस लोक का इन्द्रपद मिले । इतना कह देने मात्र से ही आप हमारे इन्द्र बन जाएंगे और हम धन्य होंगे।" किन्तु तामली तापस उनकी प्रार्थना अस्वीकार करते हुए बोले-"मैंने किसी भी फल की कामना से तपस्या नहीं की है । मेरी करनी का फल तो मुझे मिलेगा ही, पर अगर मैं ऐसी भावना करूंगा तो मुझे उतना ही मिल कर रह जाएगा। अधिक मिलेगा ही नहीं। अतः मैं कोई इच्छा प्रगट नहीं करता, मेरी तपस्या के अनुसार जो कुछ भी मिलना होगा, मिल जाएगा।" इस प्रकार तामली तापस ने कोई नियाणा नहीं किया अतः वे ऊपर के लोक में ईशानेन्द्र बने । आशय यही है कि अगर व्यक्ति शुद्ध भावना से तपादिक उत्तम करनी करता है तो उसका फल स्वयं ही उसे मिल जाता है। मांगने की आवश्यकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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