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चोख तूं करजे मननो चीर रे !
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
संवर के सत्तावन भेदों में से छठा भेद 'मनोगुप्ति' है, जिस पर कल विचार किया गया था । अशुभ विचारों का त्याग और शुभ विचारों का ग्रहण करना ही मनोगुप्ति है ।
मन के क्षेत्र में जैसा बीज बोया जाता है, उसी के अनुसार फल प्राप्त होता है । हम देखते हैं कि किसान खेतों में मटर का एक बीज डालता है । उस छोटे से बीज से मटर का पौधा अंकुरित होता है और पौधे में से सैकड़ों फलियाँ लगती हैं । उन फलियों में से एक-एक फली में से कई-कई दाने मटर के निकलते हैं ।
इसी प्रकार हमारे मन की एक छोटी सी शुभ या अशुभ भावना अपने हजारों शुभ या अशुभ फल पैदा कर देती है । हमारे शास्त्र बताते हैं कि जीव एक समय के सूक्ष्म से सूक्ष्म भाग में ही अनन्तानन्त कर्म परमाणुओं का बंध कर लेता है । किन्तु अगर मन की भावना शुभ हुई तो अनन्तानन्त शुभ परमाणुओं का बंध होगा और भावना अशुभ हुई तो अनन्तानन्त अशुभ कर्म - परमाणु आत्मा से चिपट जाएँगे ।
अशुभ कर्म - परमाणु ज्यों-ज्यों बंधते जाते हैं, मन की मलिनता भी बढ़ती जाती है और मन की मलिनता के बढ़ते जाने से आत्मा का अनन्त संसार बढ़ता जाता है । इसलिये मन में शुभ विचारों की उत्पत्ति हो और अशुभ विचारों से उत्पन्न हुई मलिनता दूर हो, यही साधक का प्रयत्न होता है ।
इस विषय में कल मैंने कविवर स्वामी श्री समयसुन्दर जी के एक भजन की कुछ कड़ियाँ उसके सामने रखी थीं, जिनमें कवि ने मन को वस्त्र और आत्मा को धोबी की उपमा देते हुए कहा है
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