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________________ धोबीड़ा, तू धोजे मननू धोतियो रे ! ४१ कैसे भिक्षु हो ? और इन सबके लिये आखिर तुम्हारे पास धन आता कहाँ से है ?" राजा आश्चर्य में डूबा हुआ था । "धन प्राप्त करना कौनसी बड़ी बात है महाराज ? मैं दिन को जुआ खेलकर पैसा बना लेता हूँ और रात को चोरी करके धन लाता हूँ। फिर आप ही बताइये, धन की क्या कमी रह सकती है मेरे पास ? " राजा की आंखें मारे आश्चर्य के फटी की फटी रह गईं, वे सोचने लगे'एक भिक्षुक के जीवन का इतना पतन ? उसके जीवन में मद्यपान, मांसभक्षण, वेश्यागमन, चौर्यकर्म एवं जुआ खेलना भी । कैसे ये सारे के सारे दुर्गुण इसके जीवन में आ गये ।' वे कुछ बोल ही न सके, विचारों में डूबे रहे । इतने में ही भिक्षुक उनका आशय समझ कर बोला 1 "महाराज ! इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? जब जीवन में एक बुराई आ जाती है तो अन्य बुराइयां भी एक-एक करके आती रहती हैं । मैंने सर्वप्रथम मद्यपान करना प्रारम्भ किया था पर धीरे-धीरे अब ये सारे दोष मुझमें आ गये हैं और लाख प्रयत्न करने पर भी मैं अब इन्हें नहीं छोड़ सकता !" भिक्षुक ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया । बात हथौड़े की चोट के मानो मेरे सामने एक बड़ा राजा अवाक् बैठा था । उसे भिक्षुक की एक - एक समान महसूस हो रही थी । उसे लगा कि इस भिक्षुक ने भारी रहस्य उघाड़ दिया है तथा मुझे जीवन का सर्वोत्कृष्ट उपदेश सुनाकर सजग किया है । वह सोचने लगा- " मैंने भी तो मद्यपान प्रारम्भ किया है, तो क्या धीरे-धीरे मुझमें भी ये सब दुर्गुण आने वाले हैं ! ओह, क्या दशा होती मेरी ? अच्छा हुआ इस भिक्षु ने मुझे समय पर सचेत कर दिया, अन्यथा मैं न जाने पतन के गढ्ढे में कितने नीचे तक चला जाता । मन ही मन राजा ने भिक्षुक को धन्यवाद दिया और उसी क्षण से मदिरा की ओर दृष्टिपात करने का भी त्याग कर दिया । कहने का अभिप्राय यही है कि अगर मन को नियंत्रण में न रखा जाय तो वह एक दुर्गुण की ओर बढ़ने पर अनेक दुर्गुणों को अपनी ओर खींच लेता है तथा जीवन को बुराइयों का घर बना देता है । समयसुन्दर जी नामक एक संत ने मन के आप बड़े अनुभवी और पुराने कवि थे, अतः आपके अलंकार बड़े सुन्दर ढंग से दिये गये हैं । भजन की लाइनें इस प्रकार हैं विषय में एक भजन लिखा है । भजन में उपमा और उपमेय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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