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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग समय उनका वार्तालाप हुआ, दोनों के पाँचसौ-पाँचसौ शिष्य तथा दर्शक जनसमूह भी उपस्थित था।
गौतमस्वामी श्री केशीस्वामी के समीप पधारे तथा केशीस्वामी ने अत्यन्त स्नेह पूर्वक आसनादि से उनका सम्मान किया। हमें भी इसी प्रकार का आदरपूर्ण व्यवहार सबसे करना चाहिये । किन्तु होता कुछ और ही है। सब सोचते हैं हम दूसरे हैं और वे दूसरे । तथा संयोगवश अगर कभी ऐसे व्यक्तियों का मिलन हो भी जाता है तो वहाँ तमाशबीन पहले ही आकर इकट्ठे हो जाते हैं कि आज यहाँ वाद-विवाद होगा और हमें तमाशा देखने को मिलेगा।
पर यह केवल वहीं होता है, जहाँ अज्ञान होता है। ज्ञानियों के सम्मेलन में ऐसा कदापि नहीं होता। किसी कवि ने कहा भी है
ज्ञानी से ज्ञानी मिले, करे ज्ञान की बात ।
मूरख से मूरख मिले, थापा, मुक्की लात ॥ अर्थ स्पष्ट है कि जब एक ज्ञानी दूसरे से मिलता है तो आध्यात्मिक चर्चा करता है तथा जीवन को उन्नत बनाने के विषयों पर भी विचार करता है। किन्तु अगर एक मूर्ख दूसरे मूर्ख से मिलता है तो दोनों बात का बतंगड़ बनाते हुए लड़ना प्रारम्भ कर देते हैं और थप्पड़, घसों तथा लातों से बातें करते हैं।
तो केशीस्वामी और गौतमस्वामी दोनों ही ज्ञानी पुरुष और सच्चे सन्त थे, अतः उनमें पारमार्थिक प्रश्नोत्तर हुए। श्री केशीस्वामी ने गौतम स्वामी से पूछा
अयं साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई ।
जंसि गोयमा आरूढो, कहं तेण न हीरसि ॥ अर्थात्-हे गौतम ! यह घोड़ा बड़ा साहसी और भयंकर है, जिस पर तुम चढ़े हो । अत्यन्त चंचल होने के कारण यह इधर-उधर दौड़ता है। क्या तुम इससे पराजित तो नहीं हो रहे हो?
बंधुओ आप समझ गये होंगे कि यहाँ पर 'घोड़ा' शब्द का प्रयोग मन के लिये किया गया है । घोड़ा भी चंचल होता है और मन भी, अतः मन के स्थान पर घोड़ा शब्द दिया गया है। , तो केशीस्वामी के प्रश्न का उत्तर गौतमस्वामी देते हैं
पधावंतं निगिण्हामि, सुयरस्सीसमाहियं ! न मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवज्जई ।।
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