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५ | धोबीड़ा, तू धोजे मननूं धोतियो रे !
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
मोक्षमार्ग पर अग्रसर करने वाले संवर के सत्तावन भेद हैं, जिनमें से प्रथम पाँच पर हम विचार कर चुके हैं। आज छठे भेद मनोगुप्ति को लेना है । मनोगुप्ति का अर्थ है अशुभ व्यवहारों से मन को हटाना तथा शुभ व्यवहारों में मन को लगाना । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के चौबीसवें अध्याय में भी दिया गया है
संरम्भसमारम्भे, आरम्भे य तहेव य । मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तज्ज जयं जई ॥
संरंभ, समारंभ और आरंभ, ये तीन प्रक्रियाएँ हैं, इनमें प्रवृत्त होते हुए मन पर विजय प्राप्त करने वाला ही सच्चा साधक होता है । पाप-क्रियाएँ करने का विचार करना ही मनोगुप्ति के लिये घातक है । क्योंकि अशुभ विचार मन में आते ही आत्मा को पापों से कसने लग जाते हैं । तो अशुभ विचारों में प्रवृत्त होने वाले मन को यतनापूर्वक काबू में रखता हुआ जो साधक मोक्षमार्ग की ओर बढ़े, वही साधु है । कहा भी है- 'मोक्षमार्गे यतते इति यतिः ।'
अर्थात् - जो मोक्षमार्ग के लिये प्रयत्न करे, वह यति है ।
जिज्ञासा होती है कि मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति कब होगी ? उत्तर यही दिया जा सकता है कि जब ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप होगा । और ये चारों उसी साधक के पास हो सकते हैं, जो पापों में प्रवृत्त होने वाले मन को काबू में रखता है, पापपूर्ण क्रियाओं से निवृत्त होता है तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करता है ।
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मन अत्यन्त चंचल होता है । इस विषय में श्री उत्तराध्ययन सूत्र में केशीस्वामी और गौतमस्वामी का संवाद दिया गया है जिसमें प्रश्नोत्तर हैं । जिस
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