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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग वचनों का बड़ा महत्व होता है और वे उसके अर्थ के लिये जिम्मेदार होते हैं । इस जिम्मेदारी को समझ लेना ही विवेकी पुरुष का कार्य है। आगे कहा गया है
"लोहवाणियो जिम आ पड़ायो, जेणे हीरा तजी लोहो वाह्यो।
वोराए जेम नाडु खांच्यू,
एक ववा बिना सघलू कांचू । राजप्रश्नीय सूत्र में वर्णन आया है कि केशीस्वामी महाराज ने प्रदेशी राजा को आत्मा के विषय में बहुत कुछ समझाया और उसे ग्रहण करने की प्रेरणा दी । किन्तु राजा ने उत्तर दिया- "महाराज ! जो मेरे दादा, परदादा से चला आया है, उसे कैसे छोड़ दूं?" - यह सुनने पर स्वामी जी ने कहा- "लगता है कि तुम लोहवाणिये के साथी हो।"
राजा ने जिज्ञासा पूर्वक प्रश्न किया--"लोहवाणिया कौन था और उसका यह नाम कैसे पड़ा ?"
केशीस्वामी ने तब दृष्टान्त दिया कुछ व्यापारी धन कमाने के इरादे से साथ-साथ परदेश जा रहे थे ।
संयोगवश मार्ग में उन्हें ऐसा स्थान मिला जहाँ लोहे की खान थी। व्यापारियों ने सोचा चलो मुफ्त में लोहा मिल रहा है तो यही ले लें। फलस्वरूप उन्होंने एक-एक गठरी में लोहे के टुकड़े बाँध लिये और आगे बढ़ चले।
चलते-चलते जब वे और कुछ दूर पहुँच गए तो उन्हें तांबे की खान दिखाई दी। व्यापारियों ने विचार किया-लोहे की अपेक्षा तो तांबे की कीमत अधिक होती है । अत: सबने लोहा फेंक दिया और अपनी गठरी ताँबे से भर ली । किन्तु एक व्यापारी उनमें ऐसा था जिसने लोहा नहीं फेंका और उसे ही लिये रहा।
अन्य व्यापारियों ने कहा- "भाई ! लोहा फेंक दो और तांबा ले लो, यह लोहे से ज्यादा कीमती है।" ।
पर वह व्यापारी बोला- "वाह इतनी दूर से तो वजन उठाकर लाया हूँ, अब कैसे इसे फेंक दूं।"
उसके न मानने पर व्यापारी सब आगे बढ़ गये। भाग्य से वे ऐसे मार्ग पर चल पड़े थे कि उस रास्ते पर खाने ही खानें आ रही थीं। काफी दूर चलने के
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