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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग वस्तुतः जिसके हृदय में विवेक होता है वही वस्तु तत्त्व को समझ सकता है और पढ़े हुए, सुने हुए या सीखे हुए ज्ञान का सदुपयोग कर सकता है । किन्तु जो विवेकहीन होता है वह उसी ज्ञान को प्रथम तो उपयोग में लाता ही नहीं और लाना चाहता है तो अपने अज्ञान और मिथ्यात्व के कारण उसका दुरुपयोग कर लेता है । ३२ कवि ने भी कहा है कि विवेक के अभाव में मन कच्चा रहता है । जो विवेकी होता है वह स्वयं तो अपनी सम्पूर्ण क्रियाएँ विवेकपूर्वक करता ही है, औरों को भी क्षणमात्र में परख लेता है । कहा जाता है कि एक बार एक सेवाभावी सज्जन किसी संस्था का निर्माण करने के लिये चन्दा लेने निकले । घूमते-घामते वे एक मन्दिर के समीप पहुंच गये । वहाँ एकत्रित जनसमूह में उन्होंने अपना उद्देश्य प्रकट किया । परिणामस्वरूप किसी धनी व्यक्ति ने दस हजार रुपये चंदे में लिखाए और यह देखकर एक अति निर्धन वृद्धा ने, जिसके शरीर पर वस्त्र भी पूरे नहीं थे, केवल गद्गद् हृदय से उन्हें चार पैसे सेवा कार्य करने वाली संस्था के निमित्त में दिये और वहाँ से चली गई । सज्जन व्यक्ति ने उसी समय चार पैसे देने वाली वृद्धा का नाम अपनी लिस्ट में ऊपर लिख लिया और उसके नीचे दस हजार रुपये देने वाले व्यक्ति का नाम लिखा । पास में खड़े हुए कई व्यक्तियों ने यह देखा तो बोल पड़े - "वाह साहब आपने चार पैसे देने वाली बुढ़िया का नाम पहले लिख लिया और दस हजार देने वाले हमारे सेठजी का नाम उसके नीचे लिखा है, ऐसा क्यों ?" सज्जन व्यक्ति ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया – “भाइयो ! सेठजी ने दस हजार रुपये जो चंदे में दिये हैं, ये उनके लिये कोई बड़ी बात नहीं हैं, वे चाहें तो सहज ही दस हजार और दे सकते हैं, दूसरे ये रुपये उन्होंने दान दाता के रूप में अपना नाम छपवाने और यश प्राप्ति की इच्छा से दिये हैं । किन्तु उस वृद्धा ने जो कि चली गई है, देकर अपना नाम करना नहीं चाहा है और ये चार पैसे उसके लिये बड़े महत्व के हैं । वह दिन भर में चार पैसे ही कमाती है, अतः शायद इनके लिये उसे आज भूखा भी रहना पड़ जाये । फिर आप ही बताइये किसका पैसा अधिक महत्त्व का है ? सेठजी का या उस वृद्धा का ?" लोग यह बात सुनकर चुप रह गए और सज्जन व्यक्ति के न्याय एवं विवेकपूर्ण विचारों की मन-ही-मन दाद देने लगे । ऐसे होते हैं विवेकी पुरुष के विचार । वह व्यक्ति के मनोभावों को और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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