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विवेको मुक्ति-साधनम्
रह
कर्मों का आगमन होता है । संवर इससे उलटा है यानी सुई और कुश का अग्रभाग भी अगर सावधानी से उठाए और सावधानी से रखे तो कर्मों का आगमन रुकता है ।
तो सावधानी से वस्तु उठाना और सावधानी से रखना जहाँ संवर कहलाता है, वहाँ व्यावहारिक जीवन में सभ्यता और शिष्टता का द्योतक भी होता है । अपने से बड़े व्यक्तियों को अगर कोई वस्तु देनी है तो उसे वहीं से फेंककर देना या उनके पास ले जाकर जोर से पटकना असभ्यता मालूम देती है । अविवेक के कारण ऐसा किया जाता है, किन्तु साधक ऐसा करके संवर का आराधन नहीं कर सकता उलटे आश्रव का सामान जुटाता है ।
इस प्रकार संवर और आश्रव में बहुत थोड़ा फर्क है । तुला पर चीज तौलते. समय तनिक-सा भाग भी पलड़े पर ज्यादा हो जाता है, वही झुक जाता है, नल को भी आप जरा-सा इधर करते हैं तो पानी आने लगता है और जरा-सा उधर करते हैं तो पानी का बहना रुक जाता है । यही हाल संवर और आश्रव का है । वस्तु सावधानी से उठाकर रखी तो कर्मों का आगमन बंद और असावधानी से उठाकर रख दी तो कर्मों का आगमन हो जाता है अर्थात् कर्म बँध जाते हैं ।
पाप और पुण्य में केवल भावनाओं का भेद अधिक होता है । मन पर संयम रखते हुए क्रियाएँ की जायें तो पुण्य और असंयम के साथ कार्य करने पर पाप का भागी बनना पड़ता है । अतः सच्चा साधक वही है जो पूर्ण सभ्यता और शिष्टतापूर्वक कार्य करता है तथा अपने उपयोग में आने वाली समस्त वस्तुओं को बड़ी सावधानी से उठाता है, धरता है तथा इधर-उधर बिखरी हुई न छोड़कर व्यवस्थित रूप से उचित स्थान पर रखता है । ऐसा न करने पर साधु को कभी-कभी बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता है । एक उदाहरण से यह समझाया जा सकता है।
एक संत बड़े ज्ञानवान और चारित्र के धनी थे किन्तु उनका शिष्य अविनीत था । संत समय-समय पर उसे शिक्षा देते थे पर वह उन्हें न करके मनमानी किया
करता था ।
एक बार दोनों विहार करके किसी छोटे से ग्राम में पहुँचे, जहाँ इने-गिने घर ही थे । उस दिन का विहार काफी लम्बा हो गया था अतः गुरु-शिष्य दोनों किसी मकान की खोज करके वहाँ रात्रि को विश्राम करने के उद्देश्य से पहुंच गए । गुरुजी ने कहा - "वत्स, अन्दर जाकर अपने वस्त्र एवं पात्र आदि सावधानी से रख दो ।"
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