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विवेको मुक्ति-साधनम्
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
शास्त्रकारों ने संवर के सत्तावन भेद बताये हैं। उनमें से तीसरा भेद एषणासमिति है । कल इस पर संक्षिप्त विवेचन किया गया था कि निवृत्ति-मार्ग पर चलने वाले संत महात्मा को शरीर चलाने के लिये आहार-जल लेना पड़ता है, किन्तु वह आहार किस प्रकार लाये और किस प्रकार उसे ग्रहण करे ताकि वह संवर के रूप में आकर कर्मों के आने में बाँध का काम कर सके ।
आज संवर का चौथा भेद जो कि चौथी समिति भी है, उसका वर्णन किया जाता है। चौथी समिति है—'आयाणभंडमत्तनिक्षेपणा-समिति ।'
'आयाण' यानी ग्रहण करना, 'भंड मत्त' यानी उपकरण, चीज-वस्तु, और 'निक्षेपणा' से अभिप्राय है रखना । इस प्रकार कोई भी पात्रादि उपकरण विवेकपूर्वक उठाना और विवेकपूर्वक ही रखना, चौथी समिति कहलाती है ।
भगवान ने कहा है कि विवेकपूर्वक चीजों को उठाना और रखना भी संवर है । जो ऐसा नहीं करता अर्थात् चीजों को सावधानी से उठाता और रखता नहीं वह संवर का अधिकारी नहीं बनता, उलटे आश्रव का अधिकारी बन जाता है।
आश्रव का अर्थ है-कर्मों का आना या कर्मों का बँधना। इसके भी बीस भेद या कारण हैं और अतिम भेद है
'सुई कुशाग्रे अजयणा तूं लेवें अजयणा सू देवे ।' अर्थात्-सुई और कुश के अग्रभाग जितना तिनका भी अगर साधक असावधानी से उठाए और असावधानी से रखे तो उसके कर्मों का बंधन होता है। अर्थात्
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