SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग अथाह सागर को तैरकर पार करना है अथवा गिरिराज सुमेरु को करतल पर धर कर तोलना है। . वस्तुतः यह वृत्ति ऐसो करनी ही है, जिस पर मनुष्य के धैर्य, साहस, सहनशीलता, संयम, शांति, सन्तोष एवं दृढ़ता की परख होती है। चोखे सोने के समान खरे और वीर व्यक्ति ही इस पर पूरे उतरते हैं । कायर व्यक्ति प्रथम तो इसे ग्रहण कर ही नहीं सकते और कदाचित् ग्रहण कर लें तो उस पर चल नहीं सकते, मार्ग में ही भ्रष्ट हो जाते हैं । इसलिये इस वृत्ति को सरल और आनन्दमय कहना निरा अज्ञान है । ऐसा कहने वाले व्यक्ति की बातों का उत्तर यही है कि उनसे कहा जाय-"अगर साधुवृत्ति अत्यन्त सरल और आनन्दमय है तो तुम भी इस जीवन को अपनाकर इसका अनुभव कर लो।" मैं समझता हूं कि ऐसा कहते ही उनकी समस्त उछल-कूद बंद हो जायगी और भविष्य में ऐसा प्रलाप करने का वे सर्वथा त्याग कर देंगे। ___ तो बंधुओ, हमारा आजका मुख्य विषय तो 'एषणासमिति' है । जिसका अर्थ है शुद्ध आहार की गवेषणा करना । निर्दोष आहार लाना संवर का एक भेद है जो कर्मों की निर्जरा करता है । प्रत्येक संत चाहे वह निर्धन कुल से आया हो या धनी कुल में से, समान है और समान भाव से प्रत्येक को निर्दोष आहार की खोज करके उसे लाना चाहिये तथा निरासक्त भाव से बिना उसकी सरसता या नीरसता पर ध्यान दिये केवल शरीर को खुराक देना है, इस बात को ध्यान में रखते हुए उसे ग्रहण करना चाहिये। भिक्षाचरी निर्जरा का कारण तभी बनती है जब मानापमान का खयाल किये बिना जहाँ जैसा आहार मिले उसे साधु लेकर आए और समता व संतोषपूर्वक ग्रहण करे। स्वामी रामदास जी एक बड़े भारी संत हुए हैं। उनका एक शिष्य एक बार किसी गृहस्थ के यहाँ भिक्षा लेने गया । गृहस्थ ने आहार तो नहीं दिया किन्तु बदले में बहुत-सी गालियाँ दीं। शिष्य ने गालियाँ शांति से सुन लीं और एक कपड़े में कई गांठें लगाकर उसे झोली में डाल लिया। अपने स्थान पर जब वह लौटा तो भिक्षा गुरु को दिखानी चाहिये अतः उसने कपड़े में बँधी हुई गांठे गुरुजी को बता दीं। गुरुजी ने चकित होकर पूछा-"यह क्या है ?" शिष्य ने बताया कि गुरुदेव ! आज गालियों की ही भिक्षा मिली है, अतः ले आया हूं। गुरुजी अपने शिष्य की समता पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसे बताया कि साधु का यही धर्म है कि प्रत्येक स्थिति में वह शान्ति और सहिष्णुता रखे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy