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मधुकरी व्यक्ति साधु बन जाया करते हैं । किन्तु जानकारी करने पर उन्हें सहज ही मालूम पड़ सकता है कि आज भी अधिकतर संत उच्च घराने के, उच्च विचारों के और समृद्धिशाली कुलों के दीपक हैं जो कि अपने धन को ठोकर मारकर और स्वजनों के मोह को छोड़कर मुनि बनते हैं । न वे परिवार के आग्रह की, उनके आँसुओं की और अंत में उन्हें नाना प्रकार के परीषह दिये जाने की भी परवाह करते हैं। लाख प्रयत्न करने व रोकने पर भी उन पर चढ़ा हुआ वैराग्य का रंग नहीं उतरता और वे दीक्षित होकर आत्म-कल्याण करते हैं।
ध्यान में रखने की बात है कि जो व्यक्ति गृहस्थावस्था में अकर्मण्य होता है, वह कायर संयम ग्रहण करके भी क्या कर सकता है ? संयम का मार्ग फलों का नहीं, कांटों का है । इस पर कमजोर और कायर कदापि नहीं चल सकते । गृहस्थावस्था में कितना भी कष्ट क्यों न हो, वह संयमपथ के कष्टों की तुलना नहीं कर सकता। इसलिए ऐसा विचार करना और कहना कि अकर्मण्य व्यक्ति साधु बनते हैं, सरासर गलत है । साधु बनने पर ही इस बात का अनुभव हो सकता है कि संयम के मार्ग की कठोरता में गृहस्थावस्था का कष्ट सौवाँ हिस्सा भी नहीं है । दूसरे, साधु बनने के लिये धनी होना या निर्धन होना कोई महत्व नहीं रखता। महत्व केवल विरक्ति का है । जिसका मन जितना अधिक संसार से विरक्त है वही सबसे अधिक धनवान होता है और वही साधु बनने के काबिल होता है।
साधु संसार में सबसे अमीर व्यक्ति होता है। सांसारिक धन-वैभव कितना भी अधिक क्यों न हो, वह अनित्य होता है, इस देह के साथ ही छूट जाने वाला होता है और उसकी एक सीमा होती है। किन्तु साधु के पास जो आत्मिक गुण, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र होते हैं तथा संतोष एव शांति रूपी धन होता है, वह इस लोक में भी कभी समाप्त नहीं होता तथा परलोक में भी अक्षय सुख के रूप में बदल जाता है।
आशा है आप समझ गए होंगे कि मुनिवृत्ति सहज नहीं है, जिसे कोई भी अकर्मण्य व्यक्ति स्वीकार करके आनन्द से अपने जीवन-यापन का साधन बना ले। श्री उत्तराध्ययन के उन्नीसवें अध्ययन में बताया गया है
जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुक्करा । जहा भुयाहि तरिउ, दुक्करं रयणायरो।
जहा तुलाए तोलेउ, दुक्करो मन्दरोगिरी । अर्थात्-मुनिवृत्ति मोम के दांतों से लोहे के चने चबाना है या भुजाओं से
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