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__ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
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अगर कोई साधु भी गृहस्थ के समान भोज्य-पदार्थों में रुचि रखता है तो वह सच्चा साधु नहीं कहला सकता। अभी मैंने आपको बताया था कि भिक्षा लाते समय मुख्य रूप से ब्यालीस दोषों के न लगने का पूर्ण ध्यान साधु को रखना चाहिये । ब्यालीस में से सोलह दोष तो गृहस्थ की ओर से लगते हैं, सोलह साधु की ओर से तथा दस दोष दोनों मिलकर लगाते हैं । इस प्रकार कुल ब्यालीस दोष होते हैं, जिनका ध्यान रखना साधु के लिये अनिवार्य है।
कहने का अभिप्राय यही है कि इन समस्त दोषों को बचाने पर जो भी रूखासूखा या नीरस आहार मिल जाय, वही साधु को पूर्ण संतोष और समता पूर्वक ग्रहण करना चाहिये । हमारे बुजुर्ग कहते हैं
"कभी तो घी घणा, कभी मुट्ठी भर चना और कभी वो भी मना ।"
साधु को ये सब अनुभव होते ही रहते हैं । आप जैसे श्रीमंतों के यहाँ चातुर्मास काल में आहार के लिये जाने पर स्वादिष्ट पदार्थ प्राप्त होते हैं, पर जब विहार करते हुए छोटे-छोटे गाँवों में ठहरना पड़ता है तो कभी एक रोटी, आधी रोटी या वह भी नहीं मिलती । कहीं मक्की या बाजरी की रोटी मिल गई तो शाक नहीं मिलता और शाक मिल गया तो रोटी प्राप्त नहीं होती। जिन क्षेत्रों में वर्षा काफी होती है, वहाँ तो वर्षाकाल में कई फाके भी हो जाते हैं। किन्तु हमें ऐसे अवसरों पर भी बड़े आनन्द और संतोष का अनुभव होता है। कभी खाना न मिला तो क्या? शरीर चला तो जाता नहीं, उलटे आत्मा मजबूत बनती है !
तो आहार का शुभा-शुभ फल भावनाओं पर निर्भर होता है। अगर मुनि गृद्धतापूर्वक आहार ले तथा सदोष आहार लेकर आए तो शास्त्रों में बताया गया है कि वह अपने कर्मों के बंधनों को निविड़ अर्थात् मजबूत बना लेता है, और केवल शरीर को भाड़ा देने का विचार रखते हुए निरासक्त भाव से निर्दोष आहार लाता है तो उससे अनेकानेक कर्मों की निर्जरा होती है । इसीलिये 'एषणासमिति' को संवर में लिया गया है।
यद्यपि भिक्षा के लिये जाना बड़ा कठिन होता है । अगर आप लोगों से अभी एक दिन भी हमारे समान भिक्षा लाकर खाने के लिये कह दिया जाय तो आप अपनी हेठी समझेंगे तथा इसे बड़ी भारी मान-हानि का कारण मानेंगे। किन्तु बड़ेबड़े राजा-महाराजा, चक्रवर्ती अथवा करोड़पति भी जब दीक्षित हो जाते हैं तो उन्हें भिक्षा के लिये जाना पड़ता है। आज भी यही बात है । प्रायः लोग अवश्य कह देते हैं कि कमाया नहीं जाता या परिवार का पालन-पोषण नहीं किया जाता तो अकर्मण्य
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