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मधुकरी
संत कबीर ने भी कहा है
कबिरा काया कूतरी, करत भजन में भंग ।
ताको टुकड़ा डारि के, भजन करो उमंग ॥ कबीर ने शरीर को अत्यन्त तिरस्कृत करते हुए उसे कुतिया की उपमा । दी है और कहा है कि यह भजन में बाधा डालती है अतः रोटी का टुकड़ा डाल दो ताकि यह चुपचाप बैठ जाय और हम निश्चित होकर भगवान का भजन कर सकें।
दोहे के शब्दों में कोई रस, अलंकार या ऊँचे शब्द नहीं हैं, किन्तु उसके अन्दर भाव बड़े ऊँचे हैं । शरीर को कुतिया को उपमा देना यह जाहिर करता है कि साधक या भक्त को अपने शरीर के प्रति तनिक भी मोह-ममत्व नहीं होता।
जहाँ साधारण व्यक्ति शरीर को पुष्ट बनाने में और इन्द्रियों को तप्त करने में ही अपने जीवन के उद्देश्य को पूर्ण हुआ समझते हैं तथा इन्हीं कार्यों के लिये जीवन भर परिश्रम करते हैं, वहाँ साधक इस शरीर को तुध्छ मानता है तथा इसके भोजन मांगने के कारण झझलाता हुआ इसे कुत्ते की उपमा देता है। उसके लिए जीवन का उद्देश्य भगवत् प्राप्ति या समस्त कर्मों से मुक्त हो जाना होता है । अच्छा-अच्छा पहनाकर शरीर को सजाना और पौष्टिक पदार्थ खा-खाकर इमे पुष्ट करना नहीं। इसीलिये इसके भोजन मांगने पर वह क्रोधित होता है और उस समय को निरर्थक गया हुआ समझता है। रामायण के रचयिता संत तुलसीदास जी भी कहते हैं
मगन भये तुलसी रामा प्रभु गुण गाय के। कोई खावे लड्डू पेड़ा, दूध दही मंगाय के,
साधु खावे रूखा-सूखा रंग में रंगाय के ॥ तुलसीदास जी का कथन है कि सच्चा भक्त तो भगवान के गुण-गान करके ही मगन हो जाता है। उसकी भूख आत्मिक होती है, शारीरिक भूख को वह महत्व नहीं देता।
गहस्थ तो दूध-दही, लड्डू-पेड़े और अन्य नाना प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ बनवाकर या मंगाकर खाते हैं । किन्तु साधु तो रूखा-सूखा जो भी मिल जाय. उसे ही ग्रहण कर लेता है । भक्ति के रंग से रंगे हुए होने के कारण उसे मोज्य-पदार्थों के स्वाद का पता ही नहीं चलता ।
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