SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग .. तो बंधुओ आप समझ गए होंगे कि संत-मुनिराज कितने संयम पूर्वक आहार करते हैं तथा सेवा, धर्मोपदेश तथा जीवों के रक्षण आदि की कसी उत्तम भावनाओं को लेकर ही शरीर को खुराक देते हैं। संतों के लिये आहार के सरस और नीरस होने का कोई महत्त्व नहीं होता, वे उसका उपयोग केवल शरीर को कायम रखने के लिये करते हैं। __ भगवान महावीर के चौदह हजार शिष्य थे। एक बार महाराजा श्रेणिक ने भगवान से सहज ही पूछ लिया-"भगवन् ! आपके चौदह हजार शिष्यों में से कौनसा शिष्य आपको अधिक प्रिय है ?" भगवान ने उत्तर दिया- "राजन् ! मेरे सभी शिष्य संयम-साधना में सतर्क और योग्य हैं, किन्तु सबसे उत्कृष्ट करणी करने वाला धन्ना मुनि है, वही मुझे अत्यधिक प्रिय है।" धन्ना-मुनि के विषय में आज ही हम गाते हैं धन्ना मुनि धन मानव भव पायो । बार इक्कीसे जल मांहि धोई, ते अन्न खाइ जल पीयो । ऐसो तप सुणता उर कंपे, धन धन थांरो जीयो-धन्ना मुनि " । भगवान के शिष्य धन्ना मुनि सदा बेला अर्थात् दो दिन उपवास करते थे और दो उपवासों के पश्चात् पारणे के दिन आयंबिल किया करते थे। किन्तु आयंबिल भी कैसा? वे जिस अन्न को लाते थे उसे इक्कीस बार जल से धोकर तत्पश्चात् खाते थे। पशु-पक्षी भी जिस अन्न को न खा सकें, वैसे अन्न को दो उपवासों के पश्चात् खाना क्या साधारण बात है ? केवल भव्य आत्माएँ ही ऐसा कर सकती हैं। श्री धन्ना मुनि ने केवल नौ माह तक संयम का पालन किया। किन्तु अपनी उत्कृष्ट साधना से उस अल्प-समय में ही उन्होंने सर्वार्थसिद्धि प्राप्त कर ली। तो बंधुओ, श्री धनामुनि का उदाहरण देने से मेरा आशय यही बताना है कि सच्चा संत कभी आहार के सरस, नीरस या कम-ज्यादा होने की परवाह नहीं करता। वह जैसा भी मिल जाय उसे निस्पृह भाव से ग्रहण करता है। ध्यान केवल इस बात का रखता है कि आहार सदोष न हो, पूर्णतया निर्दोष हो। निर्दोष भिक्षा ही वह शरीर को देता है ताकि शरीर चलता रहे और साधना में किसी प्रकार की बाधा न पड़े। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy