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मधुकरी
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बात उनके ध्यान में नहीं आती कि खाना किसलिये चाहिये ? खाना ही जीवन का उद्देश्य है अथवा खाने से किस उद्देश्य की पूर्ति करनी चाहिये ? उनके जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य केवल शरीर को भोगोपभोगों से सुख पहुंचाना है और उनमें से एक है, खूब स्वादयुक्त पदार्थों का भोजन करना ।
लेकिन संत मुनिराजों के लिये यह बात नहीं है । उनके जीवन का उद्देश्य अच्छा और मधुर खाना नहीं, अपितु जीवन के सर्वोत्तम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति के लिये साधना करने में सहायक शरीर को थोड़ी खुराक देते रहना है। उनके लिये भगवान ने कई प्रतिबन्ध लगाये हैं, जिनका पालन न करते हुए आहार करने से दोषों का भागी बनना पड़ता है ।
शास्त्रों में वे कारण मुख्य रूप से पाँच कहे गये हैं
संजोयणा, पम्माणा, इंगाले, धूमे, कारणे ।
( १ ) इन पाँच कारणों में से पहला कारण 'संजोयणा' अर्थात् - संयोग मिलाकर आहार करना । उदाहरण स्वरूप अगर मुनि मांडले पर बैठ जाय यानी आहार करने के लिये बैठ जाय, पर खीर चखने पर ज्ञात हो कि इसमें शक्कर नहीं है और वह उठकर शक्कर लावे तो उसे संयोग का दोष लगता है ।
(२) दूसरा कारण 'पम्माणा' है । इसका अर्थ है प्रमाण के अनुसार ही साधु को आहार करना चाहिये । अगर वह अधिक आहार करता है तो शरीर में प्रमाद की अधिकता होती है और ज्ञानाभ्यास, स्वाध्याय अथवा साधना की अन्य क्रियाओं बाधा पड़ती है |
(३) तीसरी बात कही गई है 'इंगाले' । अगर मुनि आए हुए स्वादिष्ट आहार की प्रशंसा अथवा सराहना करते हुये उसे ग्रहण करे तो मानो वह अपने संयम के कोयले करता है ।
(४) चौथा है 'धूमे' । आए हुए नीरस पदार्थ की निंदा और अप्रशंसा करता हुआ साधु उसे ग्रहण करे तो वह अपने संयम का धुंआ कर देता है ।
(५) पाँचवां बताया गया है 'कारण' । कारण के बारह भेद हैं, जिनमें से छ: कारणों से साधु आहार करता है और छ: कारणों से आहार का त्याग करता है । तो जिन कारणों से आहार ग्रहण करता है, वे हैं - क्षुधा वेदनीय सहन न होने के वैयाव्रत यानी सेवा करने के लिये, ईर्यासमिति के लिये, संयम का निर्वाह करने के लिये जीवों की रक्षा के लिये, और धर्मकथा यानी धर्मोपदेश देने के लिये ।
कारण,
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