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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
आपको ज्ञात होगा कि भिक्षा को 'मधुकरी' अथवा 'गोचरी' भी कहा जाता है। ऐसा क्यों ? क्योंकि इन शब्दों के पीछे भी बड़ा महत्त्वपूर्ण भाव है। भिक्षा को मधुकरी क्यों कहते हैं, इस विषय में दशवकालिक सूत्र के प्रथम अध्याय की दूसरी गाथा में कहा गया है
जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रस ।
ण य पुप्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ।। अर्थात् जिस प्रकार द्रुम यानी वृक्ष पर लगे हुए फूल पर भ्रमर आकर बैठता है और रसपान करता है। किन्तु वह पुष्प को तनिक भी कष्ट नहीं पहुँचाता तथा अपनी आत्मा को भी तप्त कर लेता है। उसी प्रकार साधु को भी गृहस्थ रूपी फल से इसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा आहार लेना चाहिये, जिससे गृहस्थ को किसी प्रकार की कमी महसूस न हो और उसे भार न लगे। यद्यपि भंवरे में इतनी शक्ति होती है कि वह चाहने पर काष्ठ में भी छेद कर देता है किन्तु पुष्प को कष्ट नहीं पहुँचाता । यही भावना मुनि की होनी चाहिये कि वह एक ही गृहस्थ के यहाँ से ढेर-सा आहार लेकर उसे किसी भी प्रकार की परेशानी में न डाले ।
भिक्षा के लिये दूसरा शब्द 'गोचरी' आया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-गौचरी, यानी गाय के समान चरना । तो बंधुओ, भिक्षा को गौचरी ही क्यों कहा गया ? अश्वचरी या गर्दभचरी क्यों नहीं कहा ? इसलिये कि गधे और घोड़े जब चरते हैं तो घास के न निकलने पर उसे जड़समेत उखाड़ कर खा जाते हैं। किन्तु गाय ऐसा नहीं करती। वह जब घास चरती है, घास के ऊपरी हिस्से को ही सावधानी से खाती है, उसे जड़ से नहीं उखाड़ती । यही कारण है भिक्षा को गौचरी कहने का तथा अश्वचरी, गर्दभचरी या पशुचरी न कहने का ।
आपके मन में प्रश्न आएगा कि गोचरी को संवर में कैसे लिया गया है ? अरे भाई ! शरीर को चलाने के लिये अन्न-पानी तो लेना ही पड़ता है। इनके अभाव में शरीर चल नहीं सकता । किन्तु साधारण व्यक्तियों के आहार में और साधु के आहार करने में बड़ा भारी अन्तर है। साधारण व्यक्ति खाने के लिये जीता है और साधु केवल जीवित रहने के लिये खाता है । खाते दोनों हैं, किन्तु दोनों की भावनाओं में जमीन-आसमान का अन्तर है ।
अधिकतर व्यक्ति जिह्वा की तृप्ति करने के लिये अत्यन्त गृद्धता और लोलुपता पूर्वक भोजन करते हैं। अमुक वस्तु स्वादिष्ट बनी है और अमुक वस्तु बेस्वाद, यही विचार करते हुए और कहते हुए संतुष्ट अथवा असंतुष्ट होकर खाना खाते हैं । उनके लिये मधुर, पौष्टिक और स्वादिष्ट खाना ही महत्त्वपूर्ण है। यह
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