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मधुकरी
कबीर जी का यह कथन यथार्थ है और हम प्रयोग करके सहज ही इसकी सत्यता का अनुभव कर सकते हैं । हम देखते हैं कि तामसिक आहार करने वाला अर्थात् अण्डे, मांस, मछली, मदिरा अथवा ऐसी ही सर्वथा निष्कृष्ट वस्तुएँ खानेवाला व्यक्ति क्रोधी, क्रूर और निर्दयी होता है तथा सात्विक भोजन करने वाला सरल, दयालु, स्नेहशील और अहिंसक प्रवृत्ति रखता है।
मेरे कहने का आशय यही है कि साधक को न जीभ-लोलुपता के लिए आहार ग्रहण करना है, और न शरीर की पुष्टि के लिये । उसे केवल शरीर लो चलाने के लिये आहार ग्रहण करना है, क्योंकि मोक्षमार्ग की साधना का माध्यम शरीर ही है। शरीर के द्वारा ही वह आन्तरिक एवं बाह्य तपादि करके कर्मों की निर्जरा करता है। जिस प्रकार मक्खन में से घी निकालने के लिए मक्खन को सीधा आप अग्नि में नहीं डाल सकते, वरन किसी बर्तन में रखकर बर्तन के माध्यम से उसे तपाते हैं, और घी निकालते हैं। उसी प्रकार आत्मा में रहे हुए सम्यक्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र-रूप आत्मिक एवं शुभ गुणों को अपने उज्ज्वल रूप में प्राप्त करने के लिये उसे शरीर-रूपी पात्र में रखते हुए तपस्या की अग्नि में तपाते हैं और ऐसा करने पर ही आत्मा शुद्ध होती है तथा पापकर्म रूपी मैल उससे अलग होता है । निशीथभाष्य में भी कहा गया है
मोक्खपसाहण हेतू, णाणादि तप्पसाहणो देहो ।
देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो॥ ज्ञानादि गुण मोक्ष के साधन हैं, ज्ञान आदि का साधन देह है, और देह का साधन आहार है । अतः साधक को समयानुकूल आहार की आज्ञा दी गई है।
___ तो समय पर निर्दोष भिक्षा लाकर परिमित मात्रा में ग्रहण करना ही एषणासमिति का अर्थ है।
भिक्षा कैसी हो? साधु को भिक्षा किस प्रकार और कैसे लानी चाहिये, यह भी बड़ी महत्त्वपूर्ण और जानने योग्य बात है । भिक्षा के पात्र लेकर रवाना हुए और किसी एक ही घर में जाकर पात्र खाद्य पदार्थों से भर लाये, यह साधु के लिये सर्वथा वर्जित है। अगर वह ऐसा करता है, यानी किसी एक गृहस्थ का भार बनता है तो गृहस्थ की अश्रद्धा का पात्र तो बनेगा ही, साथ ही उसके स्वयं के चारित्र में भी भारी दोष या कलंक लगेगा।
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