SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मधुकरी धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! मैंने पिछले दिनों में बताया है कि इस जीवात्मा का उद्धार करने वाला एकमात्र मार्ग संवर का है । संवर शब्द का अर्थ है-संवियते, अर्थात् रोकना । बहते हुए पानी के प्रवाह को रोकने के लिये जिस प्रकार बाँध बनाया जाता है, उसी प्रकार पाप-रूपी जल के प्रवाह को रोकने के लिये भी संवर-रूपी बाँध बनाया जाता है। .. संवर के सत्तावन भेद किये गए हैं और उन भेदों में सर्वप्रथम पाँच समितियां बताई गई हैं । पाँच समितियों में भी पहली ईर्यासमिति और दूसरी भाषासमिति है । इनका वर्णन हम संक्षेप में कर चुके हैं । आज तीसरी 'एषणासमिति' के विषय में हम विचार करेंगे। एषणा को दूसरे शब्दों में हम शुद्ध गवेषणा भी कह सकते हैं। इससे तात्पर्य यह है-साधु-साध्वी जब भिक्षा के लिये निकलें तो शुद्ध गवेषणा करके निर्दोष आहार ग्रहण करें । हमारे शास्त्र बताते हैं कि साधु को एकसौ छ: दोषों से बचाव करते हुए आहार-पानी लेना चाहिये । इन एकसौ छ: में भी बयालीस दोष मुख्य हैं। इन सबके विषय में अभी विस्तृत बताया नहीं जा सकता, अतः यही कहा जा रहा है कि समस्त दोषों को टालकर निर्दोष आहार ही मुनि ग्रहण करे। सदोष या अग्राह्य आहार लेना संयम के मार्ग पर चलने वाले साधक के लिये निषिद्ध है। क्योंकि सदोष या तामसिक आहार लेने से उसके जीवन और मन पर अशुद्ध प्रभाव पड़ता है और मन के अशुद्ध होने पर संयम की साधना भी शुद्ध कैसे हो सकती है ? आप कहते भी हैं - जैसा अन-जल खाइये, तैसा ही मन होय । जैसा पानी पीजिये, तैसी वानी होय ॥ १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy