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तौल कर बोलो
ऐसे व्यक्तियों के बारे में संस्कृत के एक कवि ने कहा है
परोक्षे कार्य हतारम, प्रत्यक्ष प्रियवादिनम् ।
वर्जयेत्तादृशम् मित्रम्, विषकुम्भं पयोमुखम् । अर्थात् -परोक्ष में तो किसी की हानि का प्रयत्न करना, उसका सिद्ध होता हुआ भी बिगाड़ देना, किन्तु प्रत्यक्ष में मधुर बोलते हुए अपने आपको प्रिय मित्र साबित करना बहुत ही हानिकर और भयंकर है। ऐसे मित्र को तो विषकुम्भ के समान मानकर त्याग देना चाहिये जिसमें ऊपर दूध भरा हुआ हो किन्तु अन्दर हलाहल जहर हो।
तो बंधुओ ! दुष्टतापूर्ण, कठोर एवं कर्कश भाषा बोलना अनुचित है तथा 'मुह में राम बगल में छुरी' इस कहावत को सार्थक करने वाली कपट भाषा भी निषिद्ध है। भाषा वही उत्तम है जो ऊपर से मधुर हो और बोलने वाले के अन्तर में भी मधुरता तथा अन्य के हित की भावना हो । जैसा कि कहा गया है
"अंतर बाहिर न बाधे साखर
. सेवी सुखाची कोड़ - प्राण्या ...। जिस प्रकार शक्कर बाहर से मीठी होती है औद अन्दर से भी मीठी होती है, वैसा ही मनुष्य को बनना चाहिये । उसका हृदय और वाणी दोनों में ही मधुरता हो, तभी वह अपने व्यवहार को शुद्ध और साधनामय बना सकता है ।
_ऐसा करने पर ही भाषासमिति का पालन होता है और आत्मा मुक्ति-मार्ग पर अग्रसर हो सकती है। भाषासमिति पर अंकुश रखना ही संवर की ओर बढ़ने का सच्चा प्रयास है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को, प्रत्येक श्रावक को और प्रत्येक साधु को इस तत्त्व की ओर ध्यान देना चाहिये तथा बड़ी सावधानीपूर्वक अपने वचनों का प्रयोग करना चाहिये । तभी वह अपने गन्तव्य की ओर बढ़ सकेगा तथा इच्छित फल की प्राप्ति करने में समर्थ बनेगा।
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