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- आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग र भाषा का तो प्रत्येक व्यक्ति को बड़ी सावधानी से प्रयोग करना चाहिये । चाहे साधु हो या श्रावक, बिना विवेक रखे बोलने से अनेक बार अप्रिय प्रसंग उपस्थित हो जाते हैं । इसलिये बुद्धि और विवेक की तुला में तौले बिना कभी भी शब्दों का उच्चारण नहीं करना चाहिये । कहा भी है
... पुटिव बुद्धीए पासेत्ता, तत्तो वक्कमुदाहरे । _ अचक्खुओवनेयारं, बुद्धिमन्न सए गिरा ॥
-व्यवहार भाष्य, पीठिका ७६ पहले बुद्धि से परखकर फिर बोलना चाहिये । अन्धा व्यक्ति जिस प्रकार पथप्रदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है।
तो बंधुओ, आप समझ गए होंगे कि वाणी का उच्चारण करने से पहले कितनी सतर्कता रखने की आवश्यकता है । वह तभी रह सकती है जबकि भाषा के गुणों के साथ-साथ उसके दोषों को भी समझ लिया जाय । आप शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर वैद्य के पास जाते हैं और वैद्य दवा देने के साथ ही यह भी बताते हैं, कि अमुक वस्तुओं को खाओ और अमुक वस्तुओं को छोड़ो।
__इसी प्रकार मोक्षमार्ग पर चलने वाले के लिये भगवान हेय, ज्ञय एवं उपादेय का ज्ञान करने का आदेश देते हैं । वे कहते हैं---'अगर तुम्हें अपनी आत्मा का कल्याण करना है तो साधना के पथ पर चलो। भाषासमिति का आश्रय लो तथा कटु बोलना छोड़कर मधुर भाषा का प्रयोग करो।
जो तत्वज्ञानी होता है, वह समझ लेता है कि सदा प्रिय और हितकारी भाषा बोलनी चाहिये । किसी का नुकसान हो, ऐसी वाणी का प्रयोग करना कर्मबंधन का कारण होता है । नुकसान तो केवल आर्थिक दृष्टि से ही नहीं माना जाता अपितु जिन वचनों से किसी के दिल में दुख होता हो, वैसी भाषा भी नहीं बोली जानी चाहिये । .
मराठी में कहा गया है___ बोलावे बहु गोड़ प्राण्या ! बोलावे बहु गोड़।
दुष्ट, दुक्ति, दुर्वचना ची, टाकून द्यावी खोड़, प्राण्या"। : । कहते हैं-हे जीव ! सत्-चिदानंद आत्मन् ! तू कठोर एवं क्र र दुर्वचनों का त्याग करके मधुर भाषा को ग्रहण कर। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनके वचनों में कठोरता होती है, किन्तु अन्तःकरण कोमल और पवित्र होता है। पर कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जो ऊपर से तो बड़ा मधुर बोलते हैं पर उनके अन्तर् में कलुष रहता है तथा वह औरों के अहित की कामना करते हैं।
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