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नीके दिन बीते जाते हैं
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तभी तो कहा गया है :कौन भांति करतार, कियो है सरीर यह,
पावक के मांहि देखो पानी को जमावनो। नासिका श्रवन नैन, बदन रसन बैन,
हाथ पांव अंग नख, सीस को बनाबनो । अजब अनूप रूप, चमक दमक ऊप,
सुन्दर सोभित अति अधिक सुहावनो। जाही छिन चेतन, सकति लीन होइ गइ,
ताही छिन लागते हैं, सबकू अभावनो ॥ कवि का कहना है कि विधाता ने यह शरीर किस प्रकार का बनाया है ? जिस प्रकार अग्नि में जल नहीं ठहरता, उसमें डालते ही विलीन हो जाता है । उसी प्रकार जीवन भी पलक झपकते ही समाप्त हो जाता है।
ऊपर से देखने में तो यह बड़ा सुन्दर मालूम देता है। व्यक्ति के सुडौल नाक, कान, आँखें, मुंह, शरीर, हाथ-पैर तथा अन्य सभी अंग नख से शिखा तक बड़े अनुपम और सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति दिखाई देते हैं। किन्तु जब उम्र बढ़ने पर शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है तो वे ही अंग बेडौल दिखाई देने लगते हैं । अर्थात् बड़ी-बड़ी सुन्दर आँखें ज्योतिहीन हो जाती हैं, कमर टेढ़ी हो जाती है, त्वचा झुरीदार बन जाती है तथा दांतविहीन मुह पोपला हो जाता है तो कोई फिर उस शरीर से स्नेह नहीं रखता, उलटे ग्लानि करने लगता है। और जिस दिन इस शरीर-रूपी पिंजरे से आत्मा अलग हो जाती है, फिर तो क्षण भर भी उसकी ओर कोई दृष्टि उठाकर नहीं देखता, तथा भय के मारे उस स्थान से ही दूर भाग जाते हैं।
इसलिए बन्धुओ ! हमें जीवन का लक्ष्य केवल अपने शरीर को सजाना, संवारना और पौष्टिक बनाना ही नहीं मानना चाहिए। अपितु जीवन का लक्ष्य जीवन से मुक्ति प्राप्त करना समझना चाहिये । मेरे कहने का आशय यही है कि हमने मानव-जीवन प्राप्त किया है और यह नर-देह मिल गई है तो इसे नौका बनाकर संसार-सागर को पार करने के उपयोग में लेना चाहिए। हमारा लक्ष्य यही होना चाहिये कि अब हमें पुनः जन्म न लेना पड़े और पुनः कभी मरने का कष्ट भी न उठाना पड़े । जन्म-मरण से सदा के लिये मुक्ति प्राप्त करना ही मानव-जीवन की सार्थकता है।
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