SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीके दिन बीते जाते हैं ३२५ पक्षियों पर भी संगति का असर एक जंगल में बहुत से तोते रहते थे। उनमें से एक को एक बार एक भील पकड़कर ले गया और एक को एक ऋषि बड़े प्रेम से ले आए तथा उसे पालने लगे । ऋषि और भील, दोनों ने अपने-अपने काम के अनुसार तोतों को शिक्षा दी तथा अपने-अपने स्थान पर पिंजरों में बंद करके पेड़ों पर लटका दिया। एक बार उस प्रदेश का राजा जंगल से गुजरता हुआ अपने महल की ओर जा रहा था कि उसे मार्ग में उसी भील का झोंपड़ा दिखाई दिया जो जंगल से तोते को लाया था। राजा उस झोपड़े के समीप से ही गुजरा पर वृक्ष पर पिंजरे में बैठा हुआ तोता राजा को देखते ही जोर से बोला-"अरे भीलो ! दौड़ो, यह मनुष्य धनवान है, इसे लूट लो दौड़ो, दौड़ो।' तोते की यह बात सुनते ही राजा ने घबराकर घोड़े को एड़ लगाई और वहाँ से भाग निकला। घोड़ा भागते-भागते अब ऋषियों के आश्रम के समीप से गुजरा । वहाँ पर भी एक तोता पिंजरे में बन्द था और पिंजरा वृक्ष से लटक रहा था । यह तोता वही था जो ऋषि जंगल के उस स्थान से लाये थे, जहाँ से भील एक तोते को ले गया था। आश्रम निवासी तोते ने भी राजा को देखा, पर वह राजा को देखते ही चिल्लाया "महाराज ! आज अपने यहाँ अतिथि आए हैं । इनका स्वागत-सत्कार करो। जल्दी आओ।" राजा ने इस तोते की बात भी सुनी और आश्चर्य में पड़ गया। किन्तु वह वहाँ ठहरा नहीं और सांझ पड़ जाने के भय से अपने नगर में आ गया । राजा को दोनों तोतों की बातों पर बड़ा आश्चर्य हुआ था अतः वह उनकी बातों को भूला नहीं और अगले दिन ही उसने अपने कर्मचारियों को भेजकर दोनों को मंगवाया। __अपने यहाँ मंगवाकर उसने उन दोनों की परीक्षा ली और पाया कि दोनों की बात-चीत वगैरह में बड़ा भारी अन्तर है। भील के पास रहा हुआ तोता सदा 'पकड़ो, मारो, लूटो, हत्या कर दो।' बस इसी आशय के वाक्य बोलता था किन्तु ऋषि के आश्रम में रहा हुआ तोता बोलता था--मन्दिर जाओ, भजन करो, अतिथि की सेवा करो, ध्यान करो, पूजा में बैठो आदि आदि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy