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________________ नीके दिन बीते जाते हैं : ३२३ वह सब यहीं रह जाएगा । इसलिये मिले हुए जीवन के एक-एक क्षण को आप सार्थक करे, क्योंकि बीता हुआ समय पुनः वापिस नहीं आता। किसी कवि ने एक भजन में भी यही बात कही है दिन नीके बीते जाते हैं। सुमरण कर नाम जिनन्द का, दिन नीके बीते जाते हैं। .. जैसे पानी बीच बतासा, मूरख फंसे मोह की फांसा । भला क्या जोवे सांस की आसा गये सांस नहीं आते हैं। दिन नीके बीते जाते हैं । कवि का कथन अत्यन्त शिक्षाप्रद है। वह कहता है-"अरे भोले प्राणी ! जरा विचार कर कि तेरे जीवन के ये सुनहरे दिन किस प्रकार निरर्थक चले जा रहे हैं । जन्म लेने के पश्चात् बचपन में ज्ञान का सम्यक् उदय नहीं होता और वृद्धावस्था आ जाने पर फिर धर्माराधन की शक्ति नहीं रहती। इससे स्पष्ट है कि शंशव और वृद्धत्व के बीच का समय ही त्याग, तपस्या एवं धर्माराधन की अन्य क्रियाओं के लिये उपयुक्त होता है । इस काल में ही व्यक्ति इच्छानुसार शुभ कर्मों का मंचय कर सकता है । कवि ने इन्हीं दिनों के लिए कहा है कि ये नीके अर्थात् कुछ कर सकने लायक दिन व्यर्थ जा रहे हैं । इनके चले जाने पर प्रथम तो वृद्धावस्था आएगी या नहीं इसका क्या पता है, और अगर आ भी गई तो उस स्थिति में क्या धर्मक्रियाएं या साधना करना संभव होगा ? कवि सुन्दरदास जी ने कहा हैवेह सनेह न छोड़त है नर, जानत है थिर हैं यह देहा। छीजत जाय घटे दिन ही दिन, दीसत है घट को नित छेहा ॥ काल अचानक आइ गहै कर, आहि गिराइ कर तनु खेहा । सुदर जानि यहै निहचे धरि, एक निरंजन सू करि नेहा ॥ कहते हैं-बुद्धि और विवेक से हीन मनुष्य अपने शरीर के प्रति रहे हुए मोह को कभी भी नहीं छोड़ता। संसार के असंख्य जीवों को सदा मौत के मुंह में बाते हुए देखकर भी वह अपने शरीर को इस प्रकार रखता है जैसे यह सदा ही स्थिर रहने वाला है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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