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________________ ३२० आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग कवि दुःख प्रकट करता हुआ कहता है --- 'अन्य जातियों को देखो, वे अपनी तरक्की करती जा रही हैं पर तुम एक कदम भी बढ़ न सके । इसका कारण क्या है ? यही कि तुम में संगठन नहीं है। आगे वही समाज बढ़ सकता है जब कि उसके सदस्य एकमत होकर किसी भी काम का बीड़ा उठाएँ । भगवान महावीर ने भी धर्म का उद्धार करने के लिए चतुर्विध संघ की स्थापना की है। वह इसलिए कि चारों अपना-अपना कार्य करें। एक का काम दूसरा बराबर नही कर पाता अतः सभी संघों को अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार कार्य करना चाहिए तथा धर्म का प्रचार एवं प्रसार करने में शक्ति लगानी चाहिए। पिछले दिनों में कान्फरेस ने बहुत कार्य किया। अजमेर साधु-सम्मेलन के. लिए संतों को इकट्ठा करने में बड़े-बड़े धनाढ्य व्यक्ति भी जहाँ साधन नहीं थे, वहाँ पैदल गये । जैसे हैदराबाद वाले लालाजी, अहमदनगर के मूथाजी, और सतारा वाले श्रावक ने जिस प्रकार उत्साह पूर्वक बीड़ा उठाया था, उसी प्रकार कार्य भी किया और संतों के इकट्ठे होने का प्रसंग आया। अन्यथा एक सम्प्रदाय का साधु दूसरे सम्प्रदाय के साधु को देखते ही पीठ फेरकर चला जाता था। किन्तु इन श्रावकों ने दो पैसे खर्च किये और श्रम भी किया अतः उसका फल कुछ तो मिलेगा ही । यह सही है कि जब वृक्ष लग जाता है तो कुछ कीड़े भी उत्पन्न होते हैं और वृक्ष के खाने का प्रयत्न करते हैं । इसी प्रकार संगठन में जिन्होंने बराबर का हिस्सा लिया था वे ही किन्ही कारणोंवश अलग हुए और इस प्रकार कीड़े लगने के समान ही संगठन कुछ कमजोर हो रहा है, ऐसा कहने में कोई हर्ज नहीं है। । अगर आज सभी संत एक दूसरे की भावनाओं का आदर करते हुए इकटठे होकर काम करें तो बहुत से काम बन सकते हैं। मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता पर जिस संगठन को बनाने में श्रावकों ने लाखों रुपया खर्च किया उसे पुनः तोड़ देना अच्छी बात नहीं है । बिखरी हुई शक्ति से कभी काम नहीं बनता । समाज का भला तो संगठन से ही होगा । ____ कवि का कहना है कि तुम अपनी आँखें तो मलते रहे पर उसमें आया हुआ जाला नही निकाला जो दृष्टि में बाधक बनता रहा है। अर्थात् समाज का भला हो इसके लिए बातें तो करते रहे हो पर असंगठन रूपी जाला नहीं हटा सके । ऐसी स्थिति में काम कैसे होगा? बन्धुओ ! अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। समय है अतः जागृत होकर समाज में संगठन हो, उसकी तरक्की हो, धार्मिक शिक्षण की अधिक से अधिक सुविधा लोगों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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