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नीके दिन बीते जाते हैं
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इकट्ठा करने के लिए अनीति, धोखेबाजी और अनेक प्रकार के हिंसात्मक कार्य करवाते रहे तो उससे कर्मों की निर्जरा कैसे होगी ?
मेरे कहने का अभिप्राय यही है त्याग, व्रत, तपस्या, दान, सेवा आदि सभी गुणों का संगठित रूप ही साधक के आचार को श्रेष्ठ बनाता है तथा आत्म-कल्याण में सहायक बनता है । दूसरे शब्दों में समस्त गुणों का संगठन ही आत्मा को शुद्ध बना सकता है । इसके विपरीत जिस प्रकार एक बड़ा सुन्दर, सुदृढ़ और विशाल खम्भा ही मकान का काम नहीं दे सकता, उसी प्रकार एक गुण को अपना लेने से और अन्य दुर्गुणों का त्याग न करने से मोक्ष की साधना सम्पन्न नहीं होती ।
संगठन से लाभ
अभी-अभी प्रसंगवश रतनमुनि जी ने संगठन के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि समाज रूपी मकान बनाने में जब आप सभी समाज के सदस्य संगठित होकर काम करेंगे तो समाज रूपी विशाल भवन निर्मित हो सकेगा । मुनिजी का कथन सत्य है । वास्तव में ही अपना पेट तो सभी भर लेते हैं । आप भी अपने और अपने परिवार के लिए तो सब कुछ करते हैं किन्तु समाज में कितने दीन-दुखी, असहाय और अभावग्रस्त हैं, क्या इसका हिसाब भी आप रखते हैं ? नहीं, रख भी नहीं सकते, यह एक ही व्यक्ति के बस का रोग नहीं है । सब संगठित होकर कमर कस लें तो सम्पूर्ण समाज का भला किया जा सकता है ।
अपने परिवार का और अपना ख्याल सभी रखते हैं आत्मा का लाभ नहीं होता क्योंकि वह सब तो आप मोह होकर करते हैं । उदाहरण स्वरूप आप अपने घर में बीज सकता है ? दशहर या गमलों में बोने से कुछ ऊग जाता है नहीं होता । फल प्राप्ति के लिये तो घर से बाहर खुली जमीन काम बनेगा |
इसी प्रकार अपने घर-परिवार के लिए चाहे आप हजारों और लाखों खर्च करें तो उससे क्या लाभ है ? लाभ तो समाज के दीन-दुखियों की सहायता करने में है | अपनों की बजाय दूसरों के लिए खर्च करने पर फल भी कई गुना अधिक मिलता है । पर खेद की बात है कि आप लोगों की दृष्टि अपने घर से बाहर नहीं जाती और इसीलिए हमारी कौम अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त नहीं कर पाती ।
एक कवि ने कहा है
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पर उससे कभी आपकी और स्वार्थ के वशीभूत बोयेंगे तो क्या कुछ ऊग पर उससे भी फल प्राप्त में बीज बोने पर ही
और कोंमें तो बढ़ी, तुम न बढ़े एक कदम । आँख मलते ही रहे, आँख का जाला न गया ॥
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