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________________ तोल कर बोलो ! १३ अर्थात् छः प्रकार के वचन नहीं बोलना चाहिये । वे हैं -असत्य वचन, तिर स्कारयुक्त वचन, झिड़की भरे वचन, कठोर वचन एवं भड़काने वाले वचन । शान्त हुए कलह को पुनः इस प्रकार भाषा के विषय में हमारा धर्म बड़ी सावधानी रखने की आज्ञा देता है | चाहे व्यक्ति श्रावक हो या साधु । दोनों को ही भाषा का प्रयोग अत्यन्त संयम पूर्वक करना चाहिये । आप लोगों के लिये चेतावनी है ----- "श्रावक जी थोडा बोले, काम पड्या सूं बोले ।" ऐसा क्यों कहा गया है ? इसलिए कि आप अगर कम बोलेंगे तो अपनी भाषा पर अधिक ध्यान रख सकेंगे तथा उसमें संयम की मात्रा बनी रहेगी । वाचाल पुरुषः जब अनर्गल बोलते हैं तो उन्हें वाणी पर संयम नहीं रहता और वे असत्य बोलने के साथ-साथ कटु और अप्रिय भी बोल जाते हैं । इसलिये प्रत्येक पुरुष को चाहिये कि वह कम-से-कम बोले, आवश्यकता होने पर ही परिमित वचनों का प्रयोग करे । भगवान ने मुनियों के लिये तो भाषा पर पूरा प्रतिबन्ध लगाया है । पाँच महाव्रतों में दूसरा व्रत है - सत्य बोलना । यह साधना की डोरी में पहली गाँठ है । पाँच समितियों में दूसरी भाषासमिति है । यह दूसरी गांठ है । इसके पश्चात् तीन गुप्तियों में एक वचनगुप्ति है यह तीसरी गाँठ है । आप किसी भी वस्तु को धागे से बाँधते हैं तो एक गाँठ पर विश्वास न करते हुए दूसरी भी लगाते हैं और निश्चित हो जाते हैं कि अब धागा खुल नहीं सकता । किन्तु भगवान ने साधु की साधना को मजबूत बनाने के लिये सत्य की दो गाँठों पर भी विश्वास न करके तीन-तीन गाँठें लगाई हैं । संतों के लिये तो असत्य ही क्या, संत्य भी अप्रिय, कटु और अहितकारी हो तो नहीं बोलना चाहिये । निश्चयकारक भाषा का बोलना भी वर्जित है । कभी-कभी इससे बड़ा अनर्थ हो जाता है। एक उदाहरण से यह बात आपकी समझ में आ जाएगी । निश्चयात्मक भाषा से अनर्थ 1 किसी गांव में एक सन्त का चातुर्मास था । उसी गाँव में एक राजपूत स्त्री रहती थी । स्त्री बड़ी धर्मात्मा थी, अतः संत के दर्शन करने और उनका प्रवचन सुनने को प्रतिदिन आया करती थी । किन्तु वह सदा उदास दिखाई देती थी, अतः एक दिन मुनि ने उससे पूछा - " बहन ! तुम सदा अत्यन्त उदास रहती हो, इसका क्या कारण है ? स्त्री बोली - " भगवन् ! मेरे पति बारह वर्ष से घर नहीं आए हैं । वे युद्ध 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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