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स्वागत है पर्वराज !
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"इसलिए 'जब जागे तभी सबेरा' समझकर जाग उठ और प्रभु का स्मरण कर । अन्यथा जिस प्रकार चक्की में पड़ा हुआ प्रत्येक दाना पिस जाता है, उसी प्रकार तू भी जन्म-मरण रूपी चक्की के दोनों पाटों में पड़ा हुआ अनन्तकाल तक दुख प्राप्त करता रहेगा ।"
आगे फिर कहा है
आज सुने
के काल, कहत हों तुज्झ को, भाँव बैरी जान के जो तूं मुज्झ को । देखत अपनी दृष्टि खता क्या खात है,
लोहे कैसो ताव जनम यह जात है ॥
कवि कहता है - "भाई ! भले ही तू मेरी बात आज सुने या कल, मैं तो तुझे चेतावनी देता ही रहूँगा । इसके अलावा मुझे तो तू अपना दुश्मन भी समझ ले तो कोई बात नहीं, पर स्वयं अपनी आँखों से देखते हुए भी धोखा क्यों खा रहा है ? यानी तेरी आँखों के सामने ही तो अनेकानेक व्यक्ति प्रतिदिन काल के ग्रास बन रहे हैं । उन्हें इस प्रकार चटपट यह लोक छोड़ जाते देखकर भी क्या तुझे सीख नहीं लगती ? मैं तो तुझे यही कह रहा हूँ कि जब तक मनुष्य के चोले में है, कुछ लाभ उठा ले । एक कहावत भी है कि
'जब तक लोहा गरम है उसे पीट लो ।'
आप जानते हैं कि लोहार लोहे की कोई भी वस्तु बनाना चाहता है तो उसे भट्टी में तपाकर खूब लाल कर लेता है और तब उसे ठोक-पीटकर मोड़ता हुआ मन के माफिक पदार्थ गढ़ता है । यह ध्यान में रखने की बात है कि उस लोहे की तभी कोई वस्तु बन सकती है, जब तक वह गरम रहे । ठंडा हो जाने पर वह पुनः कड़ा हो जाता है और फिर न वह मुड़ता है तथा न ही उससे कोई वस्तु बनाई जा सकती है।
है
बंधुओ, यह मानव जन्म भी तपे हुए लोहे के समान है । जब तक यह विद्यमान है, तभी तक इसे धर्मक्रियाओं में मोड़कर इससे परलोक के लिये पुण्यों का संचय किया जा सकता है । किन्तु जैसे लोहा ठंडा पड़कर बेकार हो जाता है, उसी प्रकार यह शरीर भी नष्ट होकर मिट्टी बन जाता और फिर इससे कैसे शुभ कर्मों का संचय किया जा सकता है ? यह शरीर ही तो मोक्ष - साधना के लिये माध्यम है और इसीलिये यह मिला है, ऐसा मानना चाहिये । क्योंकि अन्य किसी भी योनि में प्राणी शुभ कर्म करके कर्मों की निर्जरा नहीं कर सकता मुक्त नहीं हो सकता। और तो और स्वर्ग में रहने वाले देवता भी
तथा संसार से
अपनी आत्मा की मुक्ति के
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