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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग कारण व्यक्ति समय नहीं निकाल पाता तो इन पर्वो के बहाने से तो उसे कुछ समय पूर्ण रूप से ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना में बिताना ही चाहिये और फिर मुख्य रूप से पर्युषण पर्व का तो एक पल भी धर्मध्यान, तत्त्व-चिंतन, जप, तप आदि से रहित नहीं रखना चाहिए।
हमारे आचार्यों ने तो मानव की सांसारिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए अधिक से अधिक सुविधाएं भी इस संबंध में दी हैं। उन्होंने कहा है-अगर तुम प्रतिदिन तप या किसी प्रकार का त्याग नहीं अपना सकते तो, पन्द्रह दिन में दूज, पंचमी, अष्टमी, ग्यारस, और चतुर्दशी को भी कुछ न कुछ तप करो, ब्रह्मचर्य का पालन करो। और पाँच दिन नहीं बनता तो अष्टमी एवं चतुर्दशी, दो दिन भी इन कार्यों के लिये रखो। यह छूट इसीलिये रखी गई है कि व्यक्ति अगर पूरी तरह से अपना समय इन कार्यों में नहीं लगा सकता तो कुछ दिन तो वह मर्यादाओं का पालन करे बिलकुल नहीं से तो इतना भी हो सके तो अच्छा है।
हमारे पन्नवणा सूत्र' में कहा गया है कि आयुष्य के तीसरे हिस्से में अगले जन्म के आयुष्य का बंध होता है। किन्तु आज के समय में क्या किसी के आयुष्य का पता चलता है कि उसे कितने वर्ष जीना है ? आज हम देखते हैं कि काल न वृद्ध को देखता है, न युवा को और न ही बालक को देखता है। किसी भी उम्र का व्यक्ति किसी भी समय काल-कवलित होता देखा जाता है।
इस स्थिति में कोई भी व्यक्ति कैसे यह जान सकता है कि मेरे जीवन का तीसरा हिस्सा कब है। आज हमारी आँखों के सामने उठती उम्र के अनेकों नवयुवक बीस, तीस और चालीस वर्ष के अन्दर भी तनिक सा बहाना पाकर परलोक सिधार जाते हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उम्र की अनिश्चितता जानकर सदा ही त्यागनियम एवं व्रतादि अपनाने चाहिये । कवि बाजिद ने कहा भी हैगाफिल हुए जीव कहो क्यूं बनत है ?
या मानुष के सांस जो कोक गनत है। जाग, लेय हरिनाम, कहां लौ सोय है ?
चक्की के मुख पर्यो सो मैदा होय है। कहते हैं- "अरे अज्ञानी जीव ! इस प्रकार गाफिल बने रहने से भला कैसे काम चलेगा ? मनुष्य को इस संसार में कितने श्वास लेना है, यह क्या कोई जान सकता है, और उन्हें गिनकर अपने जीवन का तीसरा हिस्सा निकाल सकता है कि उसमें धर्माराधन करके अगले जन्म के लिये उत्तम आयुष्य कर्म का बंध किया जा सके ?"
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