________________
महल हो या मसान....!
२९५
दृढ़ता के समक्ष आखिर हार गया और वे ज्ञान-ध्यान में अपनी सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत करके ही वहाँ से लौटे । न वे रात को तनिक भी भयभीत हुए और न ही वहाँ से उठकर उन्होंने किसी अन्य स्थान पर जाने का विचार किया। यही 'निसीइयापरिषह' को सहन करना कहा जाता है ।
मुनि गजसुकमाल ने कितनी अल्पवय में संयम ग्रहण किया था। किन्तु उसी दिन वे साधु की ग्यारहवीं प्रतिमा धारण करके महाकाल श्मशान में ध्यानस्थ हो गये और अपने ससुर के द्वारा दिये गये मरणांतक परिषह को भी सहन करके सर्वदा के लिये शाश्वत सुख के अधिकारी बने ।
ऐसी भव्य आत्माएं ही साधना के पथ पर दृढ़ता पूर्वक अग्रसर होती हैं तथा भयानक कष्टों और उपसर्गों को सहन करती हुई मोक्ष-पद की अधिकारिणी बनती हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org