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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग इधर मंदसौर और प्रतापगढ़ के आस-पास भी हमारे संत आठ-आठ दिन तक केवल अचित्त पानी पर निर्भर रहे थे जबकि उन्हें गाँवों में प्रवेश नहीं करने दिया गया था । पर उन्होंने धर्म प्रचार के लिये किसी भी परिषह की परवाह नहीं कीं तथा सभी का डटकर मुकाबला किया । मुझे एक बात और याद आती है कि दर्यापुरी सम्प्रदाय का जो अपना स्थान है इसके मूल पुरुष धर्मसिंह जी महाराज बड़े साहसी पुरुष थे । उनकी भावना थी कि हम क्रिया का उद्धार करें । आडम्बर में क्या रखा है । जैसे पूज्य लवजी ऋषि जी महाराज और पूज्य धर्मेंदास जी महाराज। इन तीन ऋषियों ने धर्म क्रिया का उद्धार किया । २९४ 'धर्मसिंह जी यति थे । उन्होंने अपने गुरु से आज्ञा मांगी, पर गुरुजी ने कहा- पहले तुम गाँव से बाहर जो 'पीर' का स्थान है, वहाँ पर एक रात्रि रहो । वह तुम्हारी हिम्मत की परीक्षा होगी। अगर उसमें सफल हो गये तो फिर आज्ञा देंगे ! इस पर श्री धर्मसिंह जी ने दर्याखान के ठिकाने पर जाकर वहाँ रात्रि भर ठहरने की आज्ञा चाही । वहाँ के मुसलमानों ने उन्हें बहुत समझाया कि - 'क्यों आप अपनी जान देना चाहते हैं ? लौट जाइये, यहाँ रात को ठहरकर कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं लौट सकता किन्तु वीर के बढ़े हुए कदम कभी पीछे नहीं हटते और न वह शेखी बघा - ता है । संत तुलसीदास जी ने कहा है शूर समर करनी कहि विद्यमान रन पाइ रिपु, कहि न जनावह आपु । कायर करहिं प्रलापु ॥ यानी - शूरवीर व्यक्ति कभी डींगें नहीं हांकता, वह युद्ध में करनी करके बताता है । प्रलाप तो कायर करता है तथा समर भूमि को देखते ही पलायन कर जाता है । तो इधर भी धर्मसिंह जी को मुसलमानों ने मौत का बढ़कर डर की और कौन सी बात होती है ? किन्तु वे मरने से बोले - “भाई ! पैदा हुआ हूँ तो एक दिन मरना ही है। आज ही जाय तो भी क्या हर्ज है ? अतः अगर तुम आज्ञा दो तो मैं आज चाहता हूँ ।" Jain Education International भय बताया। इससे कब डरने वाले थे ? मुसलमानों को ऐतराज तो कुछ था नहीं, स्वीकृति दे दी और वे ठहर गये । पर जैसा कि वहाँ कहा जाता था, देवता ने उन्हें रात को सताया किन्तु उनकी For Personal & Private Use Only वह दिन आ ठहरना यहीं www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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