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महल हो या मसान...!
२६३ अधिकार का क्या करेंगे जबकि हमारे संत ही हमारे नगर में यतियों के कारण नहीं आ सके हैं।"
बीकानेर के राजा को भी सारा हाल सुनकर अतीव दुख हुआ और उन्होंने उसी समय आज्ञा देते हुए कहा- "आपको दीवान पद छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। आप अविलम्ब जाइये और अपने गुरु महाराज को धूमधाम से शहर में ले आइये।"
__ यही हुआ भी, रामकुंवर बाई, उनके पुत्र तथा बहुसंख्यक जनता महाराज श्री की सेवा में पहुंची और धूम-धाम से 'जैनधर्म की जय' के नारे लगाते हुए वे जयमल जी महाराज को शहर के अन्दर लाये। उस समय का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है
जयमल आया मध्य बजारी, जतियाँ री बात रही फीको । आय उतरिया राजमहल में, पूज्य जी री बात रही तीखी । मास कल्प मुनि तिहां विराज्या,
गादी दिपाई जिनजी की। पचों में बताया गया है कि धर्म की सदा विजय होती है और इसीलिये अनेक परिषह सहने के पश्चात् भी जयमल जी महाराज ठाट-बाट से शहर में पधारे तथा राजमहल में ही ठहरे ।
इस प्रकार यतियों को नीचा देखना पड़ा और वे अपने उपासरे बंद करके दुबक गये । अपने कल्प जितने समय तक महाराज श्री बीकानेर में ठहरे तथा वहाँ पर जिन भगवान के धर्म का पूर्ण रूप से प्रकाश करके लोगों को धर्म पर दृढ़ किया और उसके पश्चात् वहाँ से लौटे। इस प्रकार नाना कष्ट सहकर सर्वप्रथम श्री जयमल जी महाराज बीकानेर पधारे और उन्होंने ही भविष्य के लिये मार्ग खोला।
__कहने का अभिप्राय यही है कि संत विचरण करते समय अपने हृदय में धर्मप्रचार की ही बलवती भावना रखते हैं तथा उस उद्देश्य के लिये चाहे उन्हें जंगल में, चाहे निर्जन मकानों में और चाहे श्मशानों में भी क्यों न ठहरना पड़े, वे अपनी आन्तरिक मस्ती को कायम रखते हुए प्रतिकूल स्थिति में भी प्रसन्न एव निश्चित रहते हैं।
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