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आनन्द प्रवचन | पांचवां भागे । किन्तु दुख की बात रही कि जयमल जी महाराज के बीकानेर की सूचना भी रामकुवर बाई को नहीं मिली थी और उनके गुरुदेव पूज्य श्री जयमल भी महाराज भूखे-प्यासे श्मशान में ही आठ दिन तक ठहर रहे।
किन्तु आठ दिन के बाद संयोगवश रामकुवर बाई अपनी दासी के साथ रथ में बैठकर कहीं जा रही थी और रथ श्मशान के समीपस्थ मार्ग से गुजर रहा था। उस समय दासी की दृष्टि छतरियों की ओर उठी और उसने फौरन रामवर बाई से कहा
"बाई जी ! देखिये, श्मशान की छतरियों में तो कोई अपने जैन मुनि विराजे हुए दिखाई दे रहे हैं।"
रामकुवर बाई यह बात सुनकर बुरी तरह चौंकी और पर्दा हटाकर देखा सचमुच ही वहाँ जैन संत विराजे दिखाई दिये । यह बदहवास-सी उसी क्षण रथ से उतर पड़ी और संतों के दर्शनार्थ पहुंची। पास जाकर जब उसने देखा कि संत उसके गुरु पूज्य श्री जयमल जी महाराज ही हैं और वे आठ दिन से अन्न-जल के अभाव से भी बिना किसी दुश्चिन्ता के अठाई तप का आराधन कर रहे हैं तो उसकी आँखों से आँसुओं की अविरल जल-धारा बह चली और वह बोली-“भगवन् ! मेरा कैसा दुर्भाग्य है कि मुझे आपके पधारने का पता ही नहीं चला और आप भी इतनी तकलीफ और परिषह यहाँ उठा रहे हैं । आप शहर में क्यों नहीं पधारे ?" मधुर मुस्कान सहित जयमल जी महाराज ने उत्तर दिया
मैं तो उण दिन ही आ जाता वरज्या जती हमने आता
यह सुनकर बाई अति दुख पाई आई महल में"। गुरुदेव की यह बात सुनकर रामकुवर बाई अत्यन्त दुखी हुई और उलटे पैरों अपने महल में आ गई । किन्तु उसी क्षण से उसने अन्न-जल त्याग दिया और अपने दीवान पुत्रों को धिक्कारते हुए कहा - "क्या लाभ है तुम्हारी दीवानी जैसे इतने बड़े पद से ? जबकि हमारे ही गुरु हमारे शहर में न आ सकें और आठ दिन अन्न-जल के अभाव में श्मशान में रह रहे हैं। अब मैं तो तभी अन्न और पानी ग्रहण करूंगी जब मेरे गुरु मेरे हाथ से आहार लेंगे। अन्यथा मैं भी प्राण त्याग करूंगी।"
रामकुवर बाई के पुत्र बड़े मातृभक्त थे । उन्होंने माता से सब हाल जानकर उसी क्षण वहाँ के राजा से कहा-"अपनी दीवानी सम्हाल लीजिये । हम इस
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