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तौल कर बोलो ! और चाहे जैसे विचार हों, वे जब जबान के द्वारा बाहर आएँगे तभी अन्य व्यक्तियों को उनके बारे में मालूम हो सकेगा। इस प्रकार विचारों का आदान-प्रदान में शब्द सहायक होते हैं और व्यवस्थित रूप से भावों को प्रकट करने वाले शब्द ही भाषा कहलाती है।
भाषा हमारे सांसारिक व्यवहार में भी काम आती है और मोक्षमार्ग में भी व्यवहृत होती है । पर वह सभी लाभकारी होती है जबकि समिति-युक्त बोली जाय । बोलते सभी हैं। आपको भी बोलना पड़ता है, और हमारा भी बिना बोले कार्य नहीं चलता। फर्क यही है कि हमें अपनी भाषा पर पूर्ण काबू रखते हुए बोलना होता है।
दशवकालिक सूत्र के सातवें अध्याय के अंत में भी कहा गया है कि मुनियों को सावध अर्थात् पापसहित भाषा नहीं बोलना चाहिये । साधक के लिये स्पष्ट कहा है
दिळं मियं असंदिद्ध, पडिपुग्नं विअंजियं । अयंपिरमणुव्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥
-दशवकालिक सूत्र ८।४६ आत्मवान् साधक दृष्ट, परिमित, संदेहरहित, परिपूर्ण और स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे । किन्तु यह ध्यान में रहे कि वह वाणी भी वाचालता से रहित तथा दूसरों को उद्विग्न करने वाली न हो।
कहने का अभिप्राय यही है कि मुनि को न तो निश्चयकारक भाषा बोलनी चाहिये और न ही असत्य भाषण करना चाहिये । दशवकालिक सूत्र में असत्य-भाषण के चार कारण बताए गये हैं । वे कारण हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ ।
इनके कारण ही लोग झूठ बोलते हैं। क्रोध के कारण बाप-बेटे से और भाईभाई से अनेक झूठ बोल जाते हैं । जब बँटवारा होता है तो हम प्रायः देखते हैं कि प्रत्येक भाई दूसरे से जहाँ तक होता है धन-माल छिपाने की कोशिश करता है और प्रत्यक्ष रूप में ही यही कहता है अमुक वस्तु मेरे पास है ही नहीं। अहंकार के वश में होकर भी व्यक्ति ख्यातिप्राप्ति के लिये अपने न किये हुए भी अनेक उत्तम कार्य गिना देता है, ताकि लोग उसकी प्रशंसा करें और वह गर्व से मस्तक ऊँचा रख सके । तीसरा कारण माया अथवा कपट है, जिसकी तो नींव ही असत्य होती है। अर्थात् कपट के कारण व्यक्ति मन में कुछ विचार करता है और जबान से कुछ कहता है। इनके अलावा लोभ के विषय में तो आप जानते ही हैं कि दुकानदार या व्यापारी चार रुपये की चीज के आठ बताता है और थोड़े-थोड़े लाभ के लिये भी ईश्वर की,
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