SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तोल कर बोलो ! धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! कल हमने शास्त्रविशारद, सुप्रसिद्ध कवि श्री अमीऋषि जी महाराज के एक भजन के आधार पर यह जाना था कि जीव एक बनजारे के समान है, जो अनेक योनियों में भटकते-भटकते इस मनुष्य जन्म-रूपी बड़े शहर में आ पहुंचा है। इसके मार्ग में कषाय रूपी बड़े-बड़े लुटेरे बैठे हैं जो कि समय-समय पर इसके ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूपी धन को लूटते रहे हैं। यद्यपि अभी भी उन लुटेरों ने जीव का पीछा नहीं छोड़ा है, किन्तु कवि का कहना है कि इस जीवन में सौभाग्य से इसे विशिष्ट बुद्धि, ज्ञान और विवेक प्राप्त हो गया है तो उसे अपने आत्मिक धन को सुरक्षित रखने के लिये धर्म का सुदृढ़ गढ़ तैयार कर लेना चाहिये । कवि ने आगे भी कहा है कि धर्म-रूपी सुदृढ़ किले का निर्माण तभी हो सकता है जबकि संवर की आराधना की जाय । संवर के सत्तावन भेद होते हैं। जिनमें सर्व प्रथम पांच समितियाँ होती हैं और उनमें से पहली समिति ईर्यासमिति है, जिसके विषय में कल बताया गया है। ईर्यासमिति के पश्चात भाषासमिति आती है। भाषासमिति दूसरी है और उसीके विषय में आज हमें विचार करना है। समिति में 'सम्' उपसर्ग और इति शब्द में ‘इन्' धातु है । अच्छी तरह से गमन करना समिति कहलाता है । मोक्षमार्ग में अच्छी तरह गमन करना यही समिति से आशय है। भाषासमिति मन के अन्दर जो भाव, जो विचार आते हैं, उन विचारों को स्पष्ट करने के लिये जो शब्द जबान पर आते हैं, वही भाषा कहलाती है। मन में चाहे जितने १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy