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________________ साधू तो रमता भला, दाग न लागे कोय २८१ संसार छोड़ा। तो, जो घर-बार छोड़ देते हैं उनमें सग्रह की वृत्ति नहीं रहती। उस वृत्ति के स्थान पर संतोष एवं शांति का आगमन हो जाता है। अभी-अभी चोपड़ा साहब ने कहा- "संतों की तरफ देखने से संतोष होता है। धन तो अमरीका और रशिया में बहुत है, लेकिन वहाँ शांति और सुख नहीं है। वहाँ के लोगों को नींद नहीं आती और नींद लेने के लिये गोलियां लेनी पड़ती हैं।" चोपड़ा साहब का कथन यथार्थ है। हमारा भारत धर्म प्रधान देश है और धर्म के मुख्य लक्षण संतोष, अपरिग्रह और त्याग हैं । भारत के निवासी अपनी संस्कृति के अनुसार यथाशक्य धर्माराधन करते हैं तथा अत्यधिक तृष्णा, आसक्ति और गृद्धता से बचते हैं । यद्यपि भारत के सभी व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाते किन्तु अधिकांश व्यक्ति धर्म के मर्म को समझते हैं तथा वे चाहे जैन हों, वैष्णव हों या अन्य किसी मत के पर अपने धर्म-शास्त्रों का पारायण करते हैं अतः त्याग की महत्ता को समझने लगते हैं। भारत के सभी मुख्य धर्म अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह एवं सदाचार को महत्त्व देते हैं। उसी का परिणाम यह है कि भारत में प्रत्येक समय पर अनेक महापुरुष दिखाई देते हैं । भारत-भूमि में ही महावीर, कृष्ण, राम एवं बुद्ध आदि ने जन्म लिया है, जिनके अनुयायी आज भी अपने धर्म को, आचार-विचार को एवं संस्कृति को अपनाते हैं तथा अपने जीवन को आदर्श बनाने में समर्थ होते हैं । वे संसार की असारता को समझते हैं तथा हमेशा इसी चिन्तन में लीन रहते कि यहां पर जिनको मैं मेरा कहता हूँ, उनमें से कुछ भी मेरा नहीं है क्योंकि सब यहीं छुट जाना है। मेरा केवल धर्म ही है जो साथ रहेगा। संस्कृत में एक श्लोक कहा गया हैमम गृहवनमाला, वाजिशाला ममेयम, गजवृषभगणा मे, भृत्य सार्था ममेमे । वदति सतिममेति मृत्युमापद्यसे चेद्, नहि तव किमपि स्यात् धर्म मेकॅबिनान्यत् ॥ इस श्लोक में भारतभूषण शतावधानी श्री रत्नचन्द्र जी महाराज अपने पठनीय भावनाशतक में कहते हैं-ये मेरे मकानों की पंक्तियाँ हैं, ये मेरे घोड़ों की घुड़साल है, मेरे इतने हाथी, घोड़े, और बैल हैं तथा सेवा में सेवकों का इतना बड़ा समूह है। इस प्रकार कहकर व्यक्ति गर्व से फूला नहीं समाता, किन्तु जब उसकी मृत्यु का समय आता है तो वे मकान, हाथी, घोड़े, बैल तथा ऐश्वर्य क्या उसके काम आता है ? क्या कुछ भी उसके साथ चलता है ? नहीं, कवि का कहना है कि एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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