________________
२८०
आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
करके सतीजी ने सैकड़ों व्यक्तियों को धर्म का स्वरूप समझाया तथा उन्होंने प्रभावित होकर अपने कुकर्मों का त्याग किया। इसके अलावा केवल हिन्दुओं को ही उन्होंने प्रतिबोध नहीं दिया वरन् वहाँ के मुसलमानों को भी धर्मोपदेश दिया और अनेकों मुसलमानों ने मांस व मदिरा का सर्वथा त्याग किया । लार्कपुर नामक गाँव, जो कि बेरीनाग से अवंतीपुर के रास्ते में है, वहाँ सिर्फ एक घर हिन्दू पंडित का था और बाकी सम्पूर्ण घर मुसलमानों के थे।
सती जी जब उस मार्ग से गुजरे तो एक-दो घण्टे वहाँ सड़कपर बनी हुई स्कूल में गुजारसे चाहे । पर वहाँ का मुसलमान हैडमास्टर आपसे इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें तीन दिन लार्कपुर में ठहरना पड़ा तथा वहाँ के अनेक सरल मुसलमानों ने सती जी के धर्मोपदेश सुनकर हिंसा करने व शराब पीने का त्याग किया।
सती जी का मुख्य कथन यह है कि उधर के व्यक्ति इतने सरल और जिज्ञासु होते हैं कि वे तीव्र लगन पूर्वक तो उपदेश सुनते हैं और सुनने के पश्चात् अत्यन्त प्रभावित होते हुए अपने कुकर्मों पर पश्चात्ताप करते हुए उनका त्याग करने को तैयार हो जाते हैं । जबकि हमारे श्रावक जिन्दगी भर उपदेश सुनकर भी उन्हें क्रियान्वित नहीं कर सकते ।
कहने का आशय यही है कि साधु अगर अनार्य देशों में भी भ्रमण करे तो आर्य देशों में रहने वाले व्यक्तियों से अधिक लाभ अनार्य कहलाने वाले लोग उठा सकते हैं। हमें और हमारे श्रमण संघ को गर्व है कि सती 'अर्चना' जी ने नारी होने पर भी हिमाचल और काश्मीर जैसे दुर्गम प्रदेशों में जाने का साहस किया तथा सभी परिषहों का मुकाबला करते हुए वहाँ के अनेकानेक आर्य एवं अनार्य लोगों को बोध-सूत्र देते हुए सत्पथ पर बढ़ाया।
___ तो बंधुओ, इसीलिये भगवान ने साधु को आदेश दिया है कि वह धर्म-प्रचार करने और अज्ञानी प्राणियों को उद्बोधन देने के लिये यत्र-तत्र भ्रमण करे । अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो लोग जिन वचनों का लाभ नहीं उठा सकेंगे और धर्म के स्वरूप को नहीं समझ पाएंगे। इसके अलावा एक ही स्थान पर रहने से वहाँ के व्यक्तियों में साधु का मोहू बढ़ सकता है तथा एक स्थान बना लेने से परिग्रह बढ़ने की सम्भावना भी रहती है।
शास्त्र में इसी विषय को दूसरी गाथा के द्वारा बताया है कि वह परिग्रह का संचय न करे तथा गृहस्थों में आसक्त न होवे । साधु को ही दूसरे शब्दों में संन्यासी कहा जाता है। संन्यासी यानी सम्यक् प्रकारेण न्यसनम् । अर्थात् उत्तम प्रकार से
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org