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आनन्द प्रवचन | पांचवा भागं साधु अकेला कैसे ?
आत्मगवेषणा को ध्यान में रखते हुए भगवान की वाणी में कहा गया है कि साधु शुद्ध आहार से शरीर चलाता हुआ गाँवों में, नगरों में और राजधानियों में विचरण करे। इस गाथा में दो बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। प्रथम यह कि साधु के लिये 'अकेला' शब्द आया है। इस शब्द से यह तात्पर्य नहीं है कि साधु एक ही हो तथा साथ में कोई अन्य संत न हो। यहाँ अकेले से यही अभिप्राय है कि मार्ग के कष्टों और परिषहों से त्राण पाने के लिये साधु किसी की सहायता की अपेक्षा न रखे और इस दृष्टि से उसे साथ न रखे ।
दूसरे, अकेले से आशय यह है कि वह राग-द्वेषादि से, विषय-विकारों से तथा मोह, ममता एव आसक्ति से रहित केवल आत्मगवेषी रहकर विचरण करे। मन के समस्त विकारों को छोड़ दे, उन्हें साथ न रखे । . समयसार ग्रंथ में कहा गया है
'रत्तो बंधदि कम्म, मुचदि जीवो विराग संपत्तो।' अर्थात्-जीव रागयुक्त होने से कर्म बाँधता है और विरक्त होकर कर्मों से मुक्त होता है।
आप समझ गए होंगे कि 'राग' का साथ होना कर्मबंध का कारण है और उसे छोड़ देना निर्जरा का। इसीलिये साधु को इसे छोड़ कर निश्चितता पूर्वक जो भी रूखा-सूखा आहार मिल जाए उसे ग्रहण करते हुए रागादि से रहित होकर अकेले विचरण करना चाहिये।
इसी बात की पुष्टि करते हुए आगे उत्तराध्ययन सूत्र की दूसरी गाथा में कहा गया है
असमाणे चरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिग्गहं ।
असंसत्तो गिहत्थेहि, अणिएओ परिव्वए ॥ अर्थात्-साधु सदा अहंकार से रहित होकर, किसी प्रकार के परिग्रह का संचय न करे। गहस्थों में आसक्त न होवे और किसी प्रकार के घर-बार को न रखता हुआ सदा देश-प्रदेश में भ्रमण करे ।
इस गाथा में भी साधु को आदेश दिया गया है कि देश विदेश में विचरे किन्तु अहंकार से रहित होकर तथा परिग्रह का बिना संचय किये हुए । वह न तो गृहस्थों में आसक्ति रखे और न ही साथ में घर-बार की वस्तुएं रखे या कि कहीं अपने रहने के लिये विशिष्ट स्थान ही बनाए ।
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