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२८ | साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओं एवं बहनो !
हम संवर के सत्तावन भेदों के विषय में वर्णन कर रहे हैं। इन्हीं में बाईस परीषह भी आते हैं। आठ परिषहों के विषय में हम जानकारी कर चुके हैं और आज नौवें परिषह को लेंगे । बाईस परिषहों में से नौवाँ परिषह है-'चर्यापरिषह' । श्री उत्तराध्ययन सूत्र में इस परिषह पर गाथा दी गई है
एग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसहे । गामे वा नगरे वावि, निगमे वा रायहाणिये ॥
-अध्ययन २, गा १८ अर्थात्-अकेला साधु प्रासुक आहार से निर्वाह करता हुआ ग्राम में, नगर में, वणिक स्थान में और राजधानी आदि सभी अन्य स्थानों में विचरण करे।
____ आपको ध्यान होगा कि आठवें 'स्त्री परिषह' में कहा गया था- बुद्धिमान पुरुष स्त्री को कीचड़ के समान मानकर उनके द्वारा अपना हनन न करे किन्तु आत्मगवेषी बनकर अपने संयम मार्ग में विचरण करे ।
यहाँ हमें आत्मगवेषी शब्द को लेना है। इसका अर्थ है-आत्मा की खोज करना। सांसारिक पदार्थों की और उसके सुख की खोज तो सभी करते हैं, किन्तु उस खोज का कोई शुभ फल प्राप्त नहीं होता। शुभ-फल तो तब मिलता है जबकि आत्मा की खोज की जाय। आत्मा की खोज से तात्पर्य है- आत्मा के स्वरूप को समझना तथा ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र आदि आत्मा के गुणों को समझते हुए आत्मा की अनंत शक्तियों को जागृत करना ।
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