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साधू तो रमता भला, दाग न लागे कोय
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- ये सब विधान साधु के लिए क्यों बनाए गए हैं ? इसलिये कि साधु समस्त संसार की ओर से उदासीन होकर आत्माभिमुख हो जाता है और साधु का बाना वह तभी सार्थक कर सकता है जबकि उसके अनुरूप कार्य करे तथा अपना व्यवहार बनाये । आज साधु को संसार इसीलिए मानता है कि वह अपने वेष के अनुसार ही आचार का पालन करता है। साधु-वेश की महिमा बताते हुए एक उदाहरण आपको देता हूँ। वह इस प्रकार है ।
साधु वेषधारी चोर एक चोर चोरी करने के लिये किसी राजमहल में आधी रात को घुसा । घमते-घामते वह राजा के शयनकक्ष में जा पहुँचा । संयोगवश इस समय राजा और रानी सोये न थे, आपस में वार्तालाप कर रहे थे । चोर कुछ ठिठक गया और उनकी बातें सुनने लगा।
उस समय राजा ने रानी से कहा- "मैं अपनी राजकुमारी का विवाह उस साधु से करूंगा जो गंगा नदी के किनारे पर रहता हो।"
चोर ने जब यह बात सुनी तो अत्यन्त प्रसन्न हुआ और सोचने लगा-अगर मैं ही भगवांवस्त्र पहन कर गंगा के किनारे रहने लगे तो शायद मुझसे राजकुमारी का विवाह हो जाय । ऐसा हो गया तब तो फिर जिन्दगी भर मुझे चोरी करने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी।
यह विचार कर चोर उसी समय राजमहल से बाहर चला गया और संन्यासी का वेश पहनकर गंगा के किनारे जा बैठा ।
अगले दिन राजा ने अपने कर्मचारियों को गंगा के किनारे रहने वाले साधुओं के पास भेजा और पुछवाया कि कौन साधु राजकुमारी से विवाह कर सकेगा ?
कर्मचारी एक के पश्चात् एक के, इस प्रकार सभी के पास गये और उनसे राजकुमारी के साथ विवाह करने के लिये कहा। किन्तु किसी भी साधु ने इसके लिये स्वीकृति नहीं दी । सबसे अंत में उस साधु वेशधारी चोर का नम्बर आया। कर्मचारियों ने उससे भी यही बात कही। चोर ने कुछ उत्तर न दिया, मौन बैठा रहा।
अन्त में राज कर्मचारी वापिस लौटे और राजा से बोले- "हुजूर, और तो कोई साधु राजकुमारी जी के साथ विवाह करना नहीं चाहता, पर एक युवा संन्यासी शायद विवाह के लिये तैयार हो जाय, क्योंकि उसने विवाह के सम्बन्ध में हो या ना कुछ भी नहीं कहा है।"
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